SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 598
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वराङ्ग चरितम् तथैव लोकद्वय सौख्य मूलं विहाय धर्म हततत्ववुद्धिः । पापाकुलं कर्म यदीह कुर्या सतां भविष्यामि विगर्हणीयः ॥ ४१ ॥ यथैव शालीक्षफल प्रदाने सुक्षेत्रज्ञो निवपेदलाबुम् । तथैव निर्वाणफलप्रदाने नृत्वावनौ' शोकफलं वपेयम् ।। ४२ ।। रत्नाकरं द्वीपवरं प्रविश्य महाघ्यरत्नानि च तानि दृष्ट्वा । नरो न संगृह्य हि रिक्तपाणिः पश्चादवाप्नोति निवृत्तयात्राम् ॥ ४३ ॥ एवं सुमानुष्यमवाप्य दुःखाद्रूपादिभिश्चापि गुणैर्युतोऽपि । नृरत्नसारं यदि नादधोयं मुग्धस्त्ववश्यं निहितो भवेयम् ॥ ४४ ॥ ठीक यही अवस्था मेरी भी होगो यदि मैं तत्वज्ञानसे विमुख होकर उस धर्मको छोड़ दूँगा, जो कि इसलोक और परलोक दोनों में सब सुखोंको देता है तथा उन कर्मोंमें लीन हो जाऊँगा जो प्रत्येक अवस्थामें पापबंधके कारण होते हैं। उस समय मुझसे बढ़कर निन्दनीय और कौन होगा ।। ४१ ।। आत्मचिंतन यदि कोई अज्ञानो किसी उर्वरा सुन्दर भूमिपर अलंबु ( तोमरी ) को बो दे जिसपर कि धान, ईख आदि सरस पदार्थोंकी उत्तम उपज हो सकती थी, तो उसे कौन न हँसेगा ? किन्तु यदि मैं धर्ममार्गसे विमुख रहता हूँ मनुष्य पर्यायरूपी उत्तम भूमिपर मैं भी तो शोकरूपी फल देनेवाले कुकर्मोंको बोऊँगा, जब कि सुकर्मका बीज लगा कर मैं निर्वाणरूपी फल पा सकता हूँ ॥ ४२ ॥ कोई पुरुष संयोगवश किसी ऐसे श्रेष्ठ द्वीपपर पहुँच जाय जो सब प्रकारके रत्नोंका भण्डार है। वह अपने पैरोंके तले पड़े एकसे एक मूल्यवान रत्नोंको देखे भो, किन्तु उनमेंसे एकको भी उठाकर अपने पास नहीं रखता है। इसी बीचमें समय समाप्त हो जाता है और उसे वहाँसे खाली हाथ ही लौटना पड़ता है ।। ४३ ।। इस अज्ञानी पुरुषके समान हो अनेक दुःखमय जन्मोंको व्यतीत करनेके बाद मनुष्य पर्याय प्राप्त है, सौभाग्यसे सुरूप, सुबुद्धि, आदि सबही प्रशस्त गुण भी मुझमें हैं, तो भी यदि मैं मनुष्य जन्मके साररूपी रत्न ( धर्मसाधना ) को नहीं ग्रहण करता हूँ, तो मुझसे बड़ा मूर्ख और कौन होगा? उस अवस्थामें मेरा विनिपात भी निश्चित है ॥ ४४ ॥ १. म कृत्वा वनौ । २. कनिवृत्ति Jain Education International ३. क नावदीयं । ४. ( निहतो ) । For Private & Personal Use Only अष्टाविंश: सर्गः [५६५] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy