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बराङ्ग चरितम्
शनैः समुत्थाय ततो युवाधिपो वरं वनं स्निग्धत रूपशोभितम् । गिरिस्रवच्छीत जलाविलान्तरे ददर्श रम्यं पनसं फलाकुलम् ।। ४३ ॥ स तैः फलैर्हेमसमानकोशकैः पितॄन्प्रतर्प्य प्रविनीय तु क्षुधाम् । स्वकार्यसिद्धये नृपतिर्वनान्तरात्ततः प्रतस्थे वरनागविक्रमः ॥ ४४ ॥ नदीरगाधा ह'दवारिकाकुला गिरींश्च निम्नोन्नतदुर्गसंकटान् ।
प्रदेशस्तरुषण्डमण्डितान्भुजद्वितीयो विचचार सोद्यमः ॥ ४५ ॥ विशीर्णवस्त्राः कपिलाङ्गमूर्धजाः प्रवृद्धगण्डस्थलरोमभीषणाः । सिताप्रदन्ता रुधिरोरुदृष्टयः पिपीलिकापङ्क्तिनिभा वनेचराः ॥ ४६ ॥ परिभ्रमन्तं गिरिकन्दरोदरे यदृच्छया तं ददृशुः पुलिन्दकाः । गृहीतदण्डासिशरासनात्मकाः प्रतर्जयन्तः परिवव्रिरे नृपम् ॥ ४७ ॥
इसके उपरान्त युवराज वहाँसे चुपचाप उठा और चल दिया था । हरे तथा सुन्दर महातरुओंसे शोभायमान वह उत्तम वन पर्वतोंसे झरते हुए शीतल जलकी धाराओंसे परिपूर्ण था । उसीमें चलते-चलते, कुमारने एक सुन्दर पनस ( कटहल ) तरु देखा जो कि फलोंके भारसे पृथ्वीको चूम रहा था ॥ ४३ ॥
युवराजने उसके फल तोड़कर उनके भीतरसे सोनेके समान कान्तिमान पीले कावे निकालकर पहिले तो इष्ट देवकी उनसे पूजा की थी और फिर शेषको खाकर अपनी भूखको शान्त किया था। इसके उपरान्त अपने जोवनके उद्देश्यको सफल करने लिए ही श्रेष्ठ हाथीके समान पराक्रमी युवराज उस वनसे चल दिया था ॥ ४४ ॥
अथाह नदियों कमलोंसे ढके विशाल तालाबों, सघन जंगलोंसे व्याप्त नोचे ऊँचे अतएव न चलने योग्य पर्वतोंको तथा कटे टूटे वृक्षोंठ ठोंसे परिपूर्ण भीषण जंगली प्रदेशों में जीवन के लिए प्रयत्न करता हुआ वह चला जा रहा था। तथा इस अवस्थामें उसका एकमात्र साथी केवल उसकी भुजाएँ ही थीं ॥ ४५ ॥
पुलिन्द आक्रमण
उन सब ही पुलिन्दोंके कपड़े चिथड़े- चिथड़े हो रहे थे, शरीरका अंग-अंग तथा केश भूरे ( धूमिल ) हो रहे थे, गालों पर बाल (रोम ) इतने बढ़ गये थे कि उनके मुख अत्यन्त डरावने लगते थे, आगे के सफेद, सफेद दाँत चमकते थे, बड़ीबड़ी आँखों में रुधिर चमकता था तथा चोटियोंकी पंक्तिके समान वे हजारोंके झु'डोंमें चले जा रहे थे ॥ ४६ ॥
इस प्रकार किसी विशेष उद्देश्यके विना पर्वतों तथा गुफाओंमें टक्कर मारते हुए युवराज वरांगको पुलिन्द १. क हृदवालकाकुला, [ हृदवारिजाकुला ] । २. म कपिला ।
३. म पुलोद्रकाः ।
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त्रयोदश:
सर्गः
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