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________________ बराङ्ग चरितम् त्रयोदशः दृढवतत्वे स्थिरबुद्धितां तदा विबुध्य' देवी परिहृष्टमानसा । स्थिता स्वरूपेण नभस्युवाच सा परीक्षणायारकृतमष्यतामिति ॥ ३९ ॥ सुदर्शनेनाप्रतिमेन केवलं स्थिता वयं शीलगुणविवजिताः । व्रतेन सदृष्टियथानुगामिना स्थितो यतस्तेन सुराधिको भवान् ॥ ४० ॥ स्वसा तवाहं नरदेव धर्मतो गुरुमहान्नो वरदत्तसन्मुनिः । तवास्तु तद्भद्रमिति प्रशस्य तं नभस्स्थले सान्तरधाच्च तत्क्षणात् ॥ ४१ ॥ ततो विमुक्तो भयसंकटद्वयादितः किमु स्यात्करणीयमुत्तरम् । प्रयाम्यथासे किमु वा करोम्यहमितीहमानो गमनं व्यरोचत ॥ ४२ ॥ सर्गः Do मैं स्वदार-संतोष नामके व्रतसे भूषित हूँ और आप जानती हैं कि किसी भी व्रत को लेकर उसे तोड़ डालना कितना नीच काम है, ॥ ३८॥ म यह सुनकर देवीको विश्वास हो गया था कि उसकी बुद्धि स्थिर है और ग्रहीत व्रतका पालन करनेमें वह अत्यन्त दृढ है, तब उसका हृदय प्रसन्नतासे परिपूर्ण हो गया था। इसके उपरान्त उसने अपने वास्तविकरूप में आकाशमें खड़े होकर ये वाक्य कहे थे "आपकी परीक्षा लेनेके लिए मैंने जो कुछ किया है वह सब क्षमा करियेगा ।। ३९ ॥ यक्षीपर सुप्रभाव देवगतिको प्राप्त हम लोगोंको स्थिति तीनों लोक में अनुपम केवल सम्यक्दर्शनके हो कारण है, अहिंसा आदि व्रतों, सप्तशीलों तथा मलगुणों आदिका पालन करना हमारे लिए संभव नहीं है। किन्तु आपका जीवन सम्यक्त्व के सर्वथा अनुकूल पाँचों व्रतोसे युक्त है इसीलिए हे युवराज आप देवोंसे भी बढ़कर हैं ।। ४० ।। हे नरदेव! जहाँतक धर्मका सम्बन्ध है मैं आपकी बहिन लगती हूँ, क्योंकि मुनियों के अग्रणी परमपूज्य वरदत्त केवली हमारे भी गुरु हैं । आपका सब प्रकारसे अभ्युदय हो' इत्यादि वाक्योंके द्वारा युवराज को भूरि-भूरि प्रशंसा करके एक क्षण भरमें ही वह आकाश में अन्तर्धान हो गयी थी ।। ४१ ।। ___ भविष्य-चिन्ता इस प्रकार युवराज वरांग दो भयों तथा संकटों से मुक्ति पा सके थे इसके उपरान्त प्रश्न यह था। इसके आगे क्या करना चाहिये ? यहीं पड़ा रहूँ ? यहाँ से चल दूं ? अथवा करूँ तो क्या करूँ ?' इत्यादि विचारोंमें जब वह गोते लगा रहा था तो उसे यही अधिक उपयुक्त और कल्याण कर जंचा था कि 'यहाँसे चल देना चाहिये ।। ४२॥ । १. म निबुध्य । २. कमुष्यताम्, [ परोक्षणाय । ३. [°पथा]। ४. क सुधीगु (गुं) रुनों । बाबासमा [२२४] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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