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अर्थवमुक्तानुजगाद सा गिरं न युज्यते ते प्रतिवाक्यमीदृशम् । निगद्यते कापुरुषैरकामिभिः प्रतीच्छ मां भक्तिमतीमुपाश्रिताम् ॥ ३५॥ तयोवितं वाक्यमनसाधनं निशम्य सद्यौवनरूपवानपि ।
त्रयोदशः स्वदारसंतोषरतिव्रतं महद विचिन्स्य तामित्थमुवाच भूपतिः ॥३६॥
सर्गः अहं पुरा सर्वशस्तु पादयोः प्रणम्य मर्ना बहमानतोऽहंतः।। स्वदारसंतोषसमाहितं व्रतं गृहीतवानस्मि मुनीन्द्रसाक्षिकम् ॥ ३७॥ नवा न काम्यस्मि न चास्म्यपौरुषोन कामिनी वापि' सुगात्रि चिन्त्यताम् ।
गृहोतदारव्रतभूषणस्य मे अयुक्तमेतद्वतलङ्घनं पुन: ॥ ३८॥ जगा सकता है । जो न तो स्वयं जागता है और जिसको निजी स्थिति अत्यन्त डबाँडोल है वह कैसे दूसरोंकी नींद तोड़ सकता है अथवा उनको दूसरों को कैसे स्थिर कर सकता है ।। ३४ ।।
कटु-कोमल परोक्षा युवक राजा वरांगसे इस प्रकारके उत्तरको सुनकर वह फिर बोली थी,-'हे आर्य ? आपको इस प्रकारका उत्तर देना शोभा नहीं देता। ऐसी बातें तो वे करते हैं जो कापुरुष है अथवा जिनकी समस्त अभिलाषाएँ व प्रेमपिपासा शान्त हो गयी हैं। + मैं तुम्हारी शरणमें आयी हूँ और तुमपर अट्ट भक्ति करती हूँ इसलिये मुझे स्वीकार करो' ॥ ३५ ।।
कुमार वरांगका यौवन चढ़ावपर था, सुन्दर-सुभग तो वह थे ही, इसके अतिरिक्त सामने खड़ी सुन्दरीके प्रिय वचन भी कामको जगानेवाले ही थे, तो भी उनको सुनते ही राजकुमारको अपनो पलीमें ही रतिको केन्द्रित करनेवाला स्वदारसंतोष व्रत याद आ गया था । फलतः कुछ समय तक विचार करनेके बाद युवक राजाने उससे यह वचन कहे थे । ३६ ।।
लैङ्गिक सदाचार का आधार पत्नी हे आर्ये ? अबसे कुछ समय पहिले मुझे परमपूज्य, समस्त पदार्थोंके साक्षात्-द्रष्टा केवलीके चरणोंमें अत्यन्त भक्तिभावपूर्वक नमन करनेका अवसर प्राप्त हुआ था। उसी समय मैंने अनेक मनिवरोंके सामने 'स्वदार संतोष' व्रतको ग्रहण किया था । यह व्रत मनुष्यके कामाचारको नियन्त्रित करके उसे समाधि की ओर ले जाता है ।। ३७ ॥
[२२३ ] ___'मैं कामी नहीं हूँ ऐसा बात नहीं है, तब तुम कहोगी क्या पुस्त्व से रहित हूँ' ऐसा भी मत समझो, आपको अपने ॥ विषयमें शंका हो सकती है सो हे सुन्दरी ! आप कमनीय युवती नहीं हैं ऐसा तो सोचा ही नहीं जा सकता है । सत्य यह है कि
१.क नोपि।
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