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बराङ्ग
त्रयोदशः सर्गः
चरितम्
परिभ्रमन्ती कृतपूर्वधर्मतो भवन्तमद्राक्षमिहैव सांप्रतम् । इतः प्रभूत्येव वशानुवर्तिनी भवेयमार्तामति गृहाण माम् ॥ ३०॥ अहं सुदुःखा' प्रविनष्टचेतना निरास्पदा तत्प्रतिकारदुर्लभा। त्वमेव भर्ता शरणं गतिश्च मे किमर्थमासे प्रतिवाक्यदुर्लभः ॥ ३१ ॥ अनेकविज्ञानकलाविदग्धया तयाभिपष्टो बहशः प्रगल्भया । स्वकेशवस्त्राङ्गविरूक्षतां स्वयं समीक्ष्य तां किचिदुवाच लज्जितः ।। ३२ ॥ सुभाषितं खल्विदमात्मनो वचः प्रियं च तथ्यं च तथैव शोभते । न मे गतिः काचिदपीह विद्यते गतिस्तवार्ये कथमस्मि कथ्यताम् ॥ ३३ ॥ स्वयं प्रबुद्धः प्रतिबोधयेत्परान् परान प्रतिष्ठापयते स्वयं स्थितः। स्वयं न बुद्धस्त्वनवस्थितः कथं परानवस्थापनरोध नक्षमः ॥ ३४ ॥
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पूर्व जन्ममें कोई पुण्य किया होगा उसीके प्रतापसे इस अटवीमें भटकते हुए यहाँपर इस समय आपके दर्शन पा सकी हूँ। क्या कहूँ, आपको देखते ही मेरा मन वा शरीर आपके वशमें हो गया है। मैं सब प्रकारसे दुःखी हूँ, संसारमें मेरे लिए अन्य कोई आशा अथवा सहारा नहीं है अतएव मुझे स्वीकार करिये ॥ ३०॥
मैंने इतने दारुण दुःख सहे हैं कि एक प्रकारसे मेरी चेतना हो नष्ट हो गयी है, अब मेरा कोई ठिकाना नहीं है, मैं । अपनी विपत्तियोंका स्वयं कोई प्रतीकार नहीं कर सकती हूँ अतएव तुम ही मेरे भरण पोषण कर्ता हो, तुम्हारे सिवा मुझे और कोई शरण नहीं है, मेरा उद्धार तुम्हीं कर सकते हो, बोलो, क्या कारण है, अरे, उत्तर भी नहीं देते हो ॥ ३१ ॥
देखनेसे ऐसा प्रतीत होता था कि वह विविध ज्ञान और सकल कलाओंमें पारंगत है । साथ ही साथ वह इतनी ढीट थी कि वह उत्तर न पाकर वरांगको बार-बार हिलाती थी। उसके लगातार स्पर्शके कारण और अपने बालों तथा पूर्ण शरीरको रूक्षता, कपड़ोंकी दुर्दशाको देखकर वह लज्जासे गड़ गया था। तो भी लजाते-लजाते कुछ बोला था ।। ३२॥
स्वदारसंतोषी वरांग 'आपके प्रिय वचन निश्चयसे मेरे लिए सुभाषित हैं अतएव ग्राह्य हो सकते हैं, किन्तु आप यह भी तो जानती हैं कि प्रियवाक्यके समान ही यथार्थ सत्यवाक्य हितकर्ता सत्यवाक्य भी शोभा पाता है । आप देखतीं हैं कि वर्तमानमें यहाँ मेरे निर्वाहका !
यहा मनवाहका [२२२] भी कोई मार्ग नहीं है ।। ३३ ।।
__अतएव हे आर्य ? मैं आपका सहारा कैसे हो सकता हूँ, आपही बतावें ! जो व्यक्ति स्वयं जागता है वही दूसरोंको १.[ सदुःखा]। २. म पसं। ३. [°बोधन]।
HISRAELIVESTMEILLY
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