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एकादशः
बराङ्ग चरितम्
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प्रशान्तपङ्खोदकतुल्यमाचं वैडूर्यरत्नप्रतिमं द्वितीयम् । तत्क्षायिकं बालदिवाकराभं तित्रस्त्रयाणामुपमा भवन्ति ॥ २७॥ मिथ्यानिवृत्ति लभतेऽन्तरात्मा सम्यक्त्वलाभादपरिश्रमेण । ज्ञानं ततो ज्ञेयविशेषदर्शि ज्ञानेन सद्भावगुणोपलब्धिः ॥२८॥ सद्धावविज्ञप्तिफलोदयेन ध्रुवं विजानाति हिताहितानि । हिताहितज्ञो मतिमानवश्यं संसारवासे न रतिं करोति ॥ २९ ॥ विभक्तसंसारनिवासरागो बिभेति जात्याचसुखावहेभ्यः । भयादितः प्राणिगणेषु नित्यं दयापरः स्यान्निरवद्य भावः ॥३०॥
सर्गः
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सम्यक्त्वदृष्टान्त प्रथम अर्थात् औपशमिक सम्यकदर्शन उस जलाधारके समान होता है जिसमें कीचड़ नीचे बैठ भर गया है ( नष्ट नहीं हुआ है, पानीके हिलते ही ऊपर आ जायगा) क्षायोपशमिक सम्यकदर्शनको तुलना वैडूर्यरत्नको ज्योतिके साथ की गयी है (रंगयुक्त प्रकाश ) तथा तृतीय क्षायिक सम्यकदर्शन तो उदीयसान सूर्यके हो समान होता है। इस प्रकार तीनों दर्शनोंकी यह तीन उपमाएँ हैं ॥ २७ ॥
रलयत्र का उदयक्रम जब आत्मामें सम्यक्त्वका उदय हो जाता है तो बिना किसी परिश्रमके हो आत्मा में से समस्त मिथ्यात्व अपने आप ही विलीन हो जाता है । यह सब होते ही उसका ज्ञान सम्यकजान हो जाता है जो कि समस्त द्रव्यों और पर्यायों को युगपत् जानता है तथा सम्यक्-ज्ञानकी प्राप्ति होते हो आत्मा के उत्तम भाव और गुण भी अपने आप चमक उठते हैं ॥ २८॥
सम्यक्ज्ञान और अच्छे भावों का फल होता है कि आत्माको अपने हित और अहितका निश्चित विवेक हो जाता है। जिस ज्ञानी पुरुषको अपने कल्याणमार्ग और पतन मार्गका ज्ञान हो गया है वह पुरुष अपने संसारी कर्मों में सर्वथा फैस नहीं । सकता यह निश्चित है ॥ २९ ॥
जिस जीव को संसारिक सुख, अभ्यदय आदि से वैराग्य हो गया है वह जन्म, मरण आदि के दुःखों का ध्यान आते ही काँप उठता है। जो जीव पापसे भयभीत है वह दुख के कारण बुरे भावोंसे बचता है, सदा शुभ भाव करता है तथा प्राणीमात्र पर दयावृत्ति रखता है ।। ३० ।।
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१.क द्रुतं ।
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