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वराङ्ग
एकादशः सर्गः
चरितम्
तथैव मिथ्यापटलावृतं यत्सम्यक्त्वचक्षुर्न च वीक्षतेऽर्थान् । तदेव सज्ज्ञानशलाकयाशु' समज्जितं पश्यति सर्वभावान् ॥ २३ ॥ प्रसन्नमिथ्यामलकर्दमेषु जीवेषु जीवादिरथावगम्य । यथैव भूशैलवनप्रदेशः संदृश्यते शान्तमलास्वथाप्सु ॥ २४ ॥ मिथ्यान्धकारोदयमन्दभावे सवेदकः पश्यति जीवतत्त्वम् । यथैव वैडूर्यमणिप्रदीपो गृहे घटादीनवलोकतेऽर्थान् ॥ २५ ॥ व्यपेतदुर्दर्शनमोहनीयो यक्षोऽपि कः पश्यति सर्वभावान् । यथैव मेघादपनीतमूतिर्लोकं विवस्वानिव दीप्तरश्मिः ॥ २६ ॥
होता है। लेकिन जब उपयुक्त चिकित्साके द्वारा वह जाली दूर कर दी जाती है तो वह आँख पदार्थों और गुणोंको स्पष्ट देखने लगती है ।। २२ ।।
इसी प्रकार जब आत्माकी स्वाभाविक दर्शनशक्ति मिथ्यात्वरूपी जालीसे ढक जाती है तो वह जीव, आदि पदार्थोंकी श्रद्धा कर ही नहीं सकता है, किन्तु सम्यक् ज्ञानरूपी शलाकाके द्वारा जब मिथ्यात्वरूपो जालो काट दी जाती है तो वही आत्मा समस्त तत्त्वोंका आत्म साक्षात्कार करता है ।। २३ ।।
जब जीवका मिथ्यात्वरूपी कीचड़ नीचे बैठकर दूर हो जाता है तो वह शरत्कालीन जलकी धाराके समान निर्मल हो। जाता है । तब उसमें जीवादि पदार्थोंका उसी प्रकार साक्षात्कार होता है जिस प्रकार पानीका मैल साफ हो जाने पर उसमें आसपासके वन, पर्वत और भूमिके प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखायी देते हैं ।। २४ ।।
मिथ्यात्वरूपी अन्धकारके प्रसारके करनेपर बेदक-सम्यकदुष्टी जीव, जीव तत्त्वके रहस्यको उसी प्रकार अति स्पष्ट रूपसे साक्षात्कार करता है । जैसे कि वैडूर्यमणिरूपी दीपक के विशद प्रकाश हो जानेपर घरमें रखे हुए घट, पट आदि पदार्थ साफ-साफ दिखने लगते हैं ॥ २५ ॥
मिथ्यात्व मोहनीय नामक दर्शनमोहनीयकी प्रकृतिके नाश हो जानेपर और तो कहना ही क्या है, साधारण यक्ष भी समस्त पदार्थोंका वैसे ही साक्षात्कार करता है, जैसे कि बादलोंके फट जानेपर जगमगाती हजारों किरणोंका स्वामी सूर्य संसारके समस्त पदार्थोंको दिखाता है ॥ २६ ॥
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१.क शलाकया सु।
२. क गम्याः, [ °गम्यः]।
३. म मलास्विवाप्सु ।
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