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बराङ्ग
चरितम्
एकादशः सर्गः
गृहीतसम्यक्त्वमतिः स्थिरात्मा षट्पष्टिकालं जलधिप्रसंख्यम् । स्वर्गावनिक्षेमसुखं निषेव्य पश्चादवाप्नोति च मोक्षसौख्यम् ॥ १८ ॥ सम्यक्त्वरत्नान्न परं हि रत्नं सम्यक्त्वमित्रान्न परं हि मित्रम् । सम्यक्त्वबन्धोर्न परोऽस्ति बन्धः सम्यक्त्वलाभान्न परोऽस्ति लाभः॥१९॥ त्रिकालविद्धिस्त्रिजगच्छरण्यैर्जीवादयो येऽभिहिताः पदार्थाः । श्रद्धानमेषां परया विशुद्धचा सद्दर्शनं सम्यगुदाहरन्ति ॥ २० ॥ नैसर्गिकं तद्धयुपदेशजं च सदर्शनं तद्विविधं जिनोक्तम् । तत्क्षायिकं ह्यौपशमं च मित्रं तदेव भयस्त्रिविधं वदन्ति ॥ २१ ॥ यथैव चक्षः पटलावतं यन्न पश्यति द्रव्यगुणादितत्त्वम् । तदेव भूयः पटलादपेतं समीक्षते द्रव्यगणादिभावान् ॥ २२॥
किन्तु जब कोई दृढ़-श्रद्धानयुक्त आत्मा वास्तव सम्यक्त्वको धारण कर लेता है तब उसका संसार भ्रमण उंगलियोपर गिना जा सकता है। क्योंकि इसके बाद वह छयासठ सागर प्रमाण समयतक स्वर्गलोकके सुखों और भोगोंका आनन्द लेता है। और अन्त में निश्चयसे मोक्ष जाता है ।। १८ ॥
संसारमें अनेक स्पृहणीय रत्न हैं किन्तु उनमेंसे कोई भी सम्यक्त्वरूपी रत्नसे बढ़कर नहीं है, सम्यक्त्व श्रेष्ठतम मित्रोंसे भी बड़ा मित्र है, कोई भी भाई सम्यक्त्वसे बढ़कर हितैषी नहीं हो सकता है तथा कोई भी लाभ ऐसा नहीं है जो सम्यक्त्वलाभकी आंशिक समता भी कर सके ।। १९ ।।
सम्यक्त्व स्वरूप तीर्थंकर भगवान केवलज्ञान द्वारा तीनों लोकोंके समस्त द्रव्यों और पर्यायोंको जानते थे। फलतः वे तीनों लोकोंके प्राणियोंके एकमात्र सहारा थे, उन्होंने ही जो जीव, अजोव आदि सात तत्त्व कहे हैं उन पर परम शुद्धिके साथ श्रद्धा करना ही सम्यकदर्शन है ऐसा आगम कहता है ॥ २० ॥
कभी जीवको अपने आपही जीवादि सात तत्त्वोंका श्रद्धान हो जाता है और कभी-कभी सद्गुरुका उपदेश सुननेपर ऐसा होता है। इसीलिए सर्वज्ञ प्रभुने सम्यक्त्वके नैसर्गिक और अधिगमज ये दो भेद किये हैं। कारणभूत आवरणके लोपको अपेक्षा इसके क्षायिक, (क्षयसे उत्पन्न ) औपशमिक ( रोधक कर्मके उपशम या दब जानेसे उत्पन्न ) तथा मिथ (क्षायोपशमिक, क्षय तथा उपशम दोनोंसे उत्पन्न ) ये तीन भेद होते हैं ।। २१ ॥
सम्यक्त्व उदय जब आँखमें जाली पड़ जाती है तो उसके द्वारा सामने पड़े हुए पदार्थ तथा उनके वर्ण आदि गुण देखना संभव नहीं ।
GIRELIासनसन्चारमन्नाराम
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