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________________ बराङ्ग तया पुनः स्थापयते मनस्स्वं मनः प्रसादाज्जयतीन्द्रियाणि । जितेन्द्रियस्त्यक्तपरिग्रहः स्याद्विरक्तसंगो विहरत्यथैकः ॥ २१ ॥ ईर्यापथादिष्वपि चाप्रमत्तो निर्वेदसंवेगविशुद्धभावः । परीषहान्दुविषहान्विजित्य तपस्क्रियां तां यतते यथोक्ताम् ॥ ३२ ॥ संप्राप्य सार्वज्यमनुत्तम श्रीविधूय कर्माणि निरस्तदोषः । निःश्रेयसां शान्तिमदारसौख्यां लब्ध्वा चिरं तिष्ठति निष्ठितार्थः ॥ ३३॥ इत्येवमुश्विरसत्सुताय धर्माभिरागोद्यतसत्क्रियाय । सम्यक्त्वमिथ्यात्वफलप्रपञ्चं सविस्तरं साधुपतिर्जगाद ॥ ३४ ॥ एकादशः सर्ग: चरितम् चारित्र प्राप्ति पापचिन्ता नष्ट हो जाने के कारण मन स्थिरता को प्राप्त होता है । मन निर्मल होते हो इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं। A जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं उसे परिग्रह छोड़ते कितनी देर लगती है ? और जब परिग्रह से पल्ला छूट जाता है तो वह एकाविहारी हो जाता है अर्थात् महाव्रतों को धारण कर लेता है ।। ३१ ।। वैराग्य भावना से उत्पन्न तीव्र तितिक्षामय भावोंके प्रवाहसे जब मनोभाव अधिकतर निर्मल हो जाते हैं तो आत्मा ईर्या, भाषा आदि पाँचों समितियों का प्रमाद त्यागकर पालन करता है। इतना ही नही भूख, प्यास आदि उन बाइसों परोषहों को भी जीतता है जिनका सहन अत्यन्त कठिन है। इस प्रकार वह आगममें कही गयी विधि के अनुसार तपस्या करने का पूर्ण प्रयत्न करता है ।। ३२ ॥ इस विधि से समस्त क्षुधा, तृषा आदि दोषों और चारों धातिया कर्मोका नाश करके वह संसार की सर्वश्रेष्ठ लक्ष्मी और शोभाका अधिपति होकर सर्वज्ञ हो जाता हैं. तथा अन्तमें सबही कर्मोका सर्वथा क्षय करनेके उपरान्त मोक्षकी विशाल शान्ति और सुखको वरण करता है। वह कृतकृत्य हो जाता है फलतः मोक्ष में जाकर अनन्त कालतक वहीं विराजता है ॥३३॥ पृथ्वीपालक महाराजा धर्मसेन के सुपुत्र कुमार वरांगको धर्मसे प्रेम था और और सत्कार्य करने का वास्तविक उत्साह था इसीलिए साधुओंके स्वामी श्रीवरदत्तकेवलीने उसके लिए उक्त प्रकारसे मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्वके भेद और फलोंको विस्ता- रपूर्वक समझाया था ॥ ३४ ॥ न्यायालयानाTERLItcाचारायचा [१८] १. म अमुत्तमा, श्रीः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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