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________________ बराङ्ग एकादशः चरितम् सर्गः मुनीन्द्रवाक्यादवबुद्धच तत्त्वं विहाय मिथ्यात्वमनादिबद्धम् । प्रहृष्टरोमाकरिताङ्गयष्टिः कृताञ्जलिर्वाक्यमिदं वभाषे ॥ ३५ ॥ अणुव्रतानां परिपालका ये ते मङ्गलं ये च तपश्चरन्ते । स्थातु तपस्युग्रतमे न शक्तो व्रतानि देष्टु कुरु मे प्रसादम् ॥ ३६॥ भवत्प्रसादोदयलब्धदृष्टिः कुतीर्थदुर्मार्गनिवृत्तदृष्टिः । नरामरैरप्यविकम्प्यदृष्टिवतानि गलाम्यहमात्मशक्त्या ॥ ३७॥ मदोद्धतैः क्षत्रियपुङ्गवैस्तैः परस्पराघातनिमित्तजातम् । विहाय तयुद्धमुखं तदेकं' मुने परप्राणिदया ममाशु ॥ ३८ ॥ परोपघातानृतदुर्वचांसि परस्वहारित्वमपार्थरोषः। पराङ्गनालिङ्गानसंगसौख्यमाजीवितान्तादमुचं यतीश ॥ ३९ ॥ बाHिILIPIERGARHIROHINETRISEASEARHIROHTAS मनि वरांगकी भव्यता मुनिराज वरदत्तकेवली के वचन सुनते ही जीव, आदि तत्त्वों का कुमार वरांगको सत्य ज्ञान हो गया था, अपाततः अनादिकाल से बँधा हुआ उसका मिथ्यात्व वहीं नष्ट हो गया था। इससे उसे इतना आनन्द हुआ था कि पूरे शरीरमें रोगाञ्च हो आया था, तब उसने हाथ जोड़कर गुरुवरसे ये वाक्य कहे थे ॥ ३५ ।। हे प्रभो ! जो जोब केवल अहिंसा आदि पांचों अणवतोंका निरतिचार रूप से पालन करते हैं वे तथा जो और उठकर तपस्या करते हैं, वे भी कल्याणमार्गको प्राप्त होते हैं, किन्तु मैं अपने में इतनी शक्ति नहीं पाता हूँ जो मुझे उग्र तपस्यामें भी अडिग बनाये रखें इसीलिए मुझे व्रतों की दीक्षा देने का अनुग्रह करिये ॥ ३६ ।। आपकी असीम अनुकम्पासे मेरी अन्तरङ्ग दृष्टि खुल गयो है अतएव कुमतों और जीवनके पापमय मार्गोंसे मुझे पूर्ण घृणा हो गयो है । आज मुझे वह दृष्टि ( सम्यक्त्व ) प्राप्त हुई है जिसे मनुष्य क्या देव भी नहीं दूषित कर सकते हैं इसीलिए मैं अपनी शक्तिके अनुसार व्रतोंको ग्रहण करता हूँ ॥ ३७ ।। महत्त्वाकांक्षी श्रेष्ठ क्षत्रिय अपने पराक्रमके अभिमानसे उद्दण्ड हो जाते हैं फलतः अपनी प्रभुता बढ़ानेके लिए आपसमें आक्रमण करते हैं जिसके निमित्तसे पर्याप्त हिंसा होती है अतएव मर्यादा रक्षाके लिए किये गये युद्धको एक हिंसाको छोड़कर हे मुनिराज? शेष सब प्राणियोंपर मेरा दयामय भाव हो गया है ।। ३८ ।। - हे यतिराज ! दूसरेको हिंसा, असत्य या कटुवचन, दूसरेको सम्पत्तिका हरग, निष्प्रयोजन परिग्रह संचय तथा दूसरेकी १. [ तथैकं]। २. [ ममास्तु ] । [१८३] www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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