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________________ निशम्य भव्यस्य वचो मुनीन्द्रः प्रसन्नभावस्य समाहितस्य । कृताभ्यनुज्ञः' स्वयमेव तस्मै चकार सम्यग्वतरोपणानि ॥ ४० ॥ तेषां व्रतानां बहभिः प्रकारैः फलान्यभिप्रेतफलप्रदानि । इहाप्यमुत्रापि यशस्कराणि प्रदर्शयामास नृपात्मजाय ॥ ४१ ॥ अन्धो यथा तुष्यति नेत्रलाभान्निधेः प्रलाभाच्च यथा दरिद्रः ।। तथा गृहीतव्रतभारसारो ह्यभूतपूर्वा मुदमाससाद ॥ ४२ ॥ महर्षिपादावभिनय भूयस्तपोऽधिकाम्शीलनिधींश्च साधन । प्रदक्षिणीकृत्य पुनः प्रवन्ध विसर्जयामास यथाना ॥४३॥ एकादशः सर्गः पत्नीके आलिंगन और सुरतके सुखको मैं जीवनपर्यन्तके लिए छोड़ता हूँ ।। ३९ ।। READHIRERNARAYARIRAATiweTA- मर ब्रतदीक्षा कुमार वरांग भव्य थे इसीलिये वे अपनेको धर्ममार्गपर लगा सके थे। तथा वे वास्तव में अत्यन्त प्रसन्न थे । यही कारण था कि जब आचार्य प्रवरने उनके वचन सुने तो उन्हें व्रत ग्रहण करनेकी अनुमति दी थी तथा स्वयं हो विधिपूर्वक उनको व्रतोंकी दीक्षा दी थी॥ ४० ।। इसके अतिरिक्त उनको यह भी तरह-तरहसे समझाया था कि उक्त पांचों व्रत किस तरह व्रतीको मनवाञ्छित फल देते हैं । व्रतोंको पालन करनेसे जोव इस लोकमें यश-पूजाको कैसे प्राप्त करता है तथा परलोकमें सुख भोगोंका अधिपति होता है यह सब उसे स्पष्ट करके समझाया था ।। ४१ ।। अन्धेको यदि आँखें मिल जाय तो जैसा वह प्रसन्न होता है, अथवा किसी अत्यन्त दरिद्र व्यक्तिको यदि विशाल कोश मिल जाय तो जिस प्रकार वह आनन्दविभोर होकर नाचता है उसी प्रकार व्रतोंके सारभूत नियमोंको ग्रहण करके राजपुत्र भी आनन्दसे फूला न समाता था क्योंकि यह सुख ऐसा था जिसे इसके पहिले उसने कभी जाना हो न था ।। ४२।। इसके उपरान्त उसने ऋषिराजके चरणोंमें पुनः साष्टांग प्रणाम किया था तथा विशाल तपरूपी निधिके अधिपति गुणोंकी राशि समस्त मुनियोंकी भक्ति-भावसे वन्दना तथा प्रदक्षिणा करके उसने परम्परा और क्रमके अनुसार उनसे बिदा ली थी ।। ४३ ॥ mammeHarpeHRISTIANESHespeareSAARAATREATREES [१४] १. म कृताभिनुजैः । Jain Education interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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