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द्वादशः
सर्गः
यथा पितृभ्यां प्रहितोऽस्मदर्थ तथोपकारो भवता कृतश्च । पत्नै म संपरिवर्ध्य भयो विच्छेत्स्यसि त्वं तव का चिकीर्षा ॥१४॥ वयं विशुद्धा यदि च त्वदर्थे अस्मत्सुहृद्धिः सुकृतं यदि स्यात् । निवयं तस्याद्य हि यौवराज्यं सुषेणयास्थापय यौवराज्ये ॥ १५ ॥ न्यायादपेतं यदि यक्तिमच्चा निशम्य राजीवचनं सबद्धिः। अपक्षरागस्त्वतिदूरदर्शी चिरं परीक्ष्येतदवोचदर्थम् ॥ १६ ॥ वाञ्छन्ति ये नाशयितु सपुण्यं ते यान्ति पूर्व हि विनाशमाशु । मत्तद्विपेन्द्रैः सह युध्यमानाः प्रयान्ति नाशं कलभाः पुरैव ॥ १७॥ न शक्यते स्थापयितु गतश्रीनं शक्यते नाशयितु पृथुश्रीः।। यथात्मना पूर्वमुपाश्रितश्रीस्तथैव सा संश्रयते नरः श्रीः ॥१८॥
जैसा कि मेरे माता पिताने आपको हमारी सहायताके लिए यहाँ भेजा था आपने समय पड़नेपर हमारी वैसी ही रक्षा की है, किन्तु जिस वृक्षको आपने इतनी चिन्ता और यत्नसे बढ़ाया है अब फिर उसे ही क्यों काटते हैं ! क्या आपकी कर्तृव्यशक्तिका यही रूप है ? ।। १४ ।।
यदि हम लोग आपको दृष्टिमें शुद्ध हैं अथवा यदि हम लाग आपके शुद्ध पक्षपाती हैं, यदि हमारे कुटुम्बियों और मित्रोंने आपका कभी कोई उपकार किया है तो आज उस ( वरांग ) के यवराज पदके अभिषेकको उलट दीजिये और सुषेणको युवराजके सिंहासनपर बैठा दीजिये ।। १५ ॥
मंत्रीकी बुद्धि प्रखर तथा सत्पथ गामिनी थी अतएव रानीके नीति और न्यायके प्रतिकूल हो नहीं अपितु सर्वथा युक्तिहोन वचनोंको सुनकर भी उसके मनमें किसी प्रकारके पक्षपातकी भावना तक न जगी थी। वह अत्यन्त दूरदर्शी था। फलतः रानीके पूर्वोक्त कथनपर उसने काफी देरतक मन ही मन विचार किया और अन्त में इस प्रकारसे उत्तर दिया था । १६ ।।
सन्मन्त्री-उपदेश _ 'जो व्यक्ति पुण्यात्मा साधुपुरुषोंका नाश करना चाहते हैं वे सबसे पहिले अत्यन्त शीघ्रतापूर्वक स्वयं ही इस संसारमें निःशेष हो जाते हैं । क्या आपने नहीं सुना है कि जंगलमें जब हाथियोंके बच्चे विसी कारणसे मदोन्मत्त हाथियोंसे भिड़ जाते हैं । तो वे बड़े हाथियोंका बालबांका किये विना स्वयं ही पहिले मर जाते हैं ।। १७ ।।।
जिस व्यक्तिके भाग्यसे लक्ष्मी उतर गयी है उसे प्रयत्न करके भो उन्नत पदपर नहीं बैठाया जा सकता है । इसी प्रकार । १. [ यदयुक्तिमच्च ]। २.क नर श्रीः, [ नरं श्रीः] ।
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