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________________ द्वादशः सर्गः अनागतं कार्यमुपस्थितं च येऽनात्मबुद्धचा प्रविचारयन्ति । स्वकार्यसिद्धि ानवाप्य मूढास्ते संश्रितैस्तैः सह यान्ति नाशम् ॥ १९ ॥ अबुद्धिमभिः प्रविकितोऽर्थो विनाशमभ्येष्यति निश्चयेन । आश्रित्य तस्माद्युवराजमेव संजीवनं नो हितमित्युवाच ॥ २०॥ इत्युत्तरं बुद्धिमतोपदिष्टं प्रत्युत्तरं वक्तमसावशक्ता। सा मन्त्रिणं प्राथितकार्यसिद्धौ प्रयाचमाना संसूतेन देवी ॥ २१ ॥ संचिन्त्य मन्त्री स्वशिरः प्रकम्प्य स्वस्वामिसंबन्धमवेक्षमाणः । संपूज्य देवीं ससुतां नताङ्गो भक्त्या क्रियाविगिरमित्युवाच ॥ २२ ॥ sweenawesomenexampesprespearespe-SHAYARITASupreypreerease जिसकी लक्ष्मी पुण्य और पुरुषार्थके कारण बढ़ रही है उसकी प्रतिष्ठा तथा पदका नष्ट करना भी संभव नहीं है । सत्य ता यह है कि पूर्वभवोंमें जीवके द्वारा जिस विधिसे पुण्यरूपी लक्ष्मी कमायो जाती है उसी विधिसे वह लक्ष्मो उस पुरुषको उत्तर भवोंमें वरण करती है ॥ १८ ॥ आ पड़े सामने खड़े करने योग्य कार्यको तथा भविष्यके कर्तव्यरूपसे उपस्थित होनेवाले कार्यको स्वयं समझे बिना ही केवल दूसरोंकी बुद्धि और तर्कणासे जो व्यक्ति समझनेका प्रयत्न करते हैं, उन मूर्खाको अपने कार्यमें सफलता नहीं मिलती है, इतना ही नहीं बल्कि उन कुमंत्रियों को सम्मतिको माननेके कारण वे स्वयं नष्ट होते हैं और साथमें उन अज्ञोंको भी ले डूबते जिनके पल्ले में बुद्धि नहीं है उनके द्वारा सोचो गयो याजनाएँ निश्चियसे विनाशके उदर में समा जाती हैं। इसलिए हम सबका इसीमें हित तथा कल्याण है कि हम युवराज वरांगको शरणमें रहकर अपना जीवन शान्तिसे बितावें ।' यही उसकी सम्मतिका सारांश था ।। २० ।। अकार्यमें सफल अनुनय हित तथा अहितके सूक्ष्मदृष्टा उस विवेको मंत्रीसे अपनो प्रार्थनाका उक्त उत्तर पाकर रानोको कोई प्रत्युत्तर ही नहीं । सूझा था इसलिए वह अपने मुखसे कुछ भी न कह सको थो। किन्तु जिस कार्यके लिए उसने मंत्रीसे निवेदन किया था उसीकी में सफलताके लिए वह अपने पुत्रके द्वारा याचना कराती हो रहो केवल स्वयं चुप बैठ रही थी ।। २१ ।। याचनाकी पुनरावृत्तिको सुनकर मंत्रोने सम्पूर्ण घटनाक्रमको गम्भीरतापूर्वक एक बार फिरसे विचारा, उसने अपने और अपने स्वामी ( रानोके पिता और माता ) के बोचके सम्बन्धपर भो एक तीक्ष्ण दृष्टि डालो, विमर्ष और निश्चयसूचक ढंगसे १.क प्रतिचारयन्ति । Jain Education intomational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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