________________
बराम चरितम्
PARDESHe-Re
वर्तमानमुपस्पश्य व्यतीतोऽतीत उच्यते । वर्तमानस्तु संप्रष्टुरुपस्थास्यत्यनागतः ॥ २८॥ उभयोरन्तरालः स्यादवर्तमानस्तु संप्रति । एष कालविभागस्तु कालविदिभरुदाहृतः॥ २९ ॥ समयावलिनाड्यश्च मुहूर्तदिनरात्रयः । पक्षमासर्तुवर्षाश्च युगाद्याः कालपर्ययाः ॥३०॥ आकाशं व्यापि सर्वस्मिन्नवगाहनलक्षणम् । तच्च प्रोक्तं विघा भूयो लोकालोकसमन्वितम् ॥ ३१॥ द्रव्यस्तु पञ्चभिर्व्याप्य' लोकाकाशं प्रतिष्ठितम् । अलोके खल पञ्चानां द्रव्याणां नास्ति संभवः॥ ३२॥ परिणामाज्जीवभावान्नित्यत्वात्कारणादपि । कर्तृत्वात्सरिक्रयत्वाच्च मूतिमत्त्वाद्विभुत्वतः ॥ ३३॥
षड्विशः
सगैः
w ariHRESTHearSSIRese
समर्थ काल द्रव्यके भी प्रधान तीन हो भेद हैं । वह काल जो बीत गया है, काल जो कि वर्तमान है तथा वह समय जो अब तक आया नहीं किन्तु अवश्य आता है अर्थात् भूत, वर्तमान तथा भविष्यत् ।। २७ ॥
वर्तमान क्षणके पहिलेका जितना भी अनादि समय था वह सब अतीत ( भूत ) काल कहलाता है। तथा वर्तमान क्षणके तुरन्त बाद ही उपस्थित होने योग्य उस समयको जो कि अब तक उपस्थित नहीं हुआ है, किन्तु होगा अवश्य, उस अनन्तकालको भविष्य कहते हैं ।। २८ ।।
तथा इन दोनों ( भूत तथा भविष्यत् ) कालोंके बीचमें जो पड़ता है, जिसे हम लोग संप्रति (अब), आदि शब्दोंसे प्रकट करते हैं उसे ही वर्तमानकाल कहते हैं । मोटे रूपसे कालके यही प्रधान भेद हैं, जिनके विषयमें कालद्रव्यके विशेषज्ञोंने व्याख्या को (लिखा ) है ।। २९ ॥
व्यवहारकी दृष्टिसे ही कालद्रव्यके समय ( एक परमाणु परिस्पन्दकाल ), आबलि ( असंख्यात-समय), नाड़ी ( २४ मिनट ), मूत, आदि सूक्ष्म भेद किये गये हैं। इन्हींके समूह रूपका दिन, रात, पक्ष, मास, शरद आदि ऋतु, वर्ष, तीर्थकरोंके युग, आदि भी कालकी ही पर्याएँ हैं ।। ३० ।।
आकाश सब स्थानोंपर व्याप्त है । जगतको तथा उसके स्वरूपको निश्चित करनेवाली समस्त द्रव्योंको जो अवकाश देता है उसे ही आकाश कहते हैं । आधेय पदार्थोकी अपेक्षासे आकाशद्रव्यके भी दो प्रधान भेद कर दिये हैं लोकाकाश तथा अलोकाकाश ।। ३१॥
आकाशद्रव्य जिस आकाश खण्डमें धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल तथा जीव ये पांचों द्रव्य व्याप्त हैं उसे ही शास्त्रकारोंने लोकाकाश नाम दिया है। अलोकाकाश इसका ठीक उल्टा है क्योंकि वहाँपर इन पाँचों द्रव्योंका नाम तथा निशान भी नहीं है ।। ३२ ॥
विशेष विचारक विद्वानोंको विविध भेद-प्रभेद-युक्त इन सब द्रव्योंको इनके साधक हेतुओंके द्वारा जानना चाहिये। जैसे । १. [पञ्चभिर्व्याप्तं] ।
GRADEEPRATARREARSELLER
" [५१७)
Jain Education international
For Privale & Personal Use Only
www.jainelibrary.org