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वराङ्ग चरितम्
एक क्षेत्रात्तयैकत्वात्स प्रदेशाद्यथाक्रमम् । सर्वं तद्द्विविधं द्रव्यं विज्ञातव्यं विचक्षणैः ॥ ३४ ॥ जीवाश्च पुद्गलाश्चैव परिणामगुणान्विताः । परिणामं न गच्छन्ति शेषाणीति विदुर्बुधाः ॥ ३५ ॥ जीवद्रव्यं हि जीवः स्याच्छेषं निर्जीव उच्यते । मूर्तिमत्पुद्गलद्रव्यममूर्त शेषमिष्यते ।। ३६ ।। धर्माधर्मवियज्जीवास्ते नैकक्षेत्रवर्तिनः । एकक्षेत्रस्तु कालः स्यादेको नैकश्च पुद्गलः ॥ ३७ ॥ परमाणुश्च कालश्च निःप्रदेशावुदाहृतौ । शेषाणि सप्रदेशानि वर्णितान्यृषिसत्तमैः ॥ ३८ ॥ धर्माधर्मैक जीवाश्च असंख्येयाः प्रदेशतः । प्रदेशा वियतोऽनन्ता इति सर्वविदां मतम् ।। ३९ ।।
कि ये सब की सब परिवर्तनशील हैं, जीव मय अथवा जीव हैं, द्रव्यत्व की अपेक्षासे जगत् सृष्टिके कारण हैं अपने विकारों या परिवर्तनोंके कर्ता भी स्वयं ये ही हैं। इनके कार्य तथा क्रियाएँ सत् ( अस्तित्व ) रूपमें हमारे सामने उपस्थित हैं तथा ये स्वयं समर्थ हैं ।। ३३ ।।
कितने ही इनमें मूर्तिमान (साकार) हैं तथा व्यापक भी हैं। इन सब ही द्रव्योंका निवास स्थान एक ही है, अपनेअपने द्रव्यत्वकी अपेक्षा ये सब हो एक हैं। तथा क्रमशः एक ही प्रदेशमें छहों द्रव्य पाये जाते हैं । यथोचित रूपसे उपयोग करनेविचारने पर ये विकल्प हेतु उनकी सत्ताको सिद्ध करते हैं ॥ ३४ ॥
द्रव्योंका विशेष
जीव आदि छहों द्रव्यों में जीव तथा पुद्गल द्रव्योंका ही कालके कारण परिणमन ( परिवर्तन ) होता है। इनके अतिरिक्त शेष धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल द्रव्योंमें किसी भी प्रकारका कोई परिणमन होता ही नहीं है, ऐसा द्रव्योंके विशेषज्ञ केवली, आदि महापुरुषोंने कहा है ।। ३५ ।।
छहों द्रव्योंमें केवल जीव द्रव्य ही ऐसा है जिसमें चेतना पायी जाती है, शेष धर्म, अधर्मं, आकाश, काल तथा पुद्गल पाँचों ही अजीव द्रव्य हैं। एक पुद्गल द्रव्य हो ऐसा है जिसकी मूर्ति (स्थूल आकार ) होती है शेष पाँचों द्रव्य सर्वथा मूर्ती ( आकारहीन ) हैं ॥ ३६ ॥
धर्म, अधर्मं, आकाश तथा जीव ये चारों द्रव्य ऐसे हैं कि इनका आधार केवल एक क्षेत्र (एक निरपेक्ष परमाणु ) हो ही नहीं सकता है । केवल काल द्रव्य ही ऐसा है जिसका एक-एक परमाणु रत्नोंको राशिमें रखे रत्नोंके समान अलग-अलग है । पुद्गल द्रव्यमें दोनों योग्यताएँ हैं, वह एक तथा अनेक क्षेत्र अवगाही है || ३७ ॥
पुद्गल द्रव्यका परमाणु ( जिससे छोटा भाग होना अशक्य है ) तथा काल द्रव्य ऐसे हैं कि इन दोनोंके और अधिक प्रदेश नहीं किये जा सकते हैं । केवलज्ञानरूपी नेत्रधारी ऋषियोंका कथन है कि बाकी सब द्रव्य ऐसे हैं कि उनके एक भागमें भी अनेक प्रदेश होते हैं ।। ३८ ।।
धर्म, अधर्म तथा एक जीव द्रव्यके प्रदेशोंकी संख्या असंख्यात है । केवलज्ञानरूपी नेत्रसे समस्त द्रव्य, पदार्थों के द्रष्टा
१. म तद्द्द्विविधं । २. क निर्जीवमुच्यते ।
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