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________________ बराङ्ग चरितम् जीवाश्च पुद्गलाश्चैव कालश्च बहवः स्मृताः । धर्माधर्मावथाकाशमेकैकं वणितं जिनैः ॥ ४० ॥ पुद्गला जीवकायाश्च नित्यानित्या इति स्मृताः । कालद्रव्यमनित्यं तन्नित्यान्येवेतराणि च ॥ ४१ ॥ सत्क्रियाः पुद्गला जीवा निःक्रियाणीतराणि च । आकाशं च विभुद्रव्यं शेषमव्यापि तद्विदुः ॥ ४२ ॥ कार्यकारणसंयुक्तं पुद्गलद्रव्यमुच्यते । शेषाण्यकारणान्येव न कार्याणि कदाचन ॥ कर्तृ कर्तृत्वसंयुक्तं पुद्गलद्रव्यमुच्यते । द्रव्याण्यन्यान्यकर्तॄणि सर्वाणीत्यार्हतं मतम् ॥ तेषामधिगमोपायः प्रमाणनयवत्र्त्मना । प्रत्यक्षं च परोक्षं च प्रमाणं तद्विधा स्मृतम् ॥ ४३ ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ सर्वज्ञ प्रभुके वचनों के अनुसार ही आकाश द्रव्यके प्रदेशोंका परिमाण अनन्त है। जीव द्रव्य, पुद्गल द्रव्य तथा काल द्रव्य अनेक हैं ।। ३९ ।। द्रव्य परिमाण श्री जिनेन्द्रप्रभुकी दिव्यध्वनिमें कहा गया है कि धर्म, अधर्मं तथा आकाश ये तीन द्रव्य ही ऐसे हैं जो एक-एक होकर भी समस्त लोकको व्याप्त किये हुए हैं ॥ ४० ॥ पुद्गल तथा शरीर बन्धनको प्राप्त जीव ये दोनों द्रव्य नित्य तथा अनित्य दोनों ही प्रकारके हैं। केवल काल द्रव्य ही ऐसा है जो अनित्य है, शेष धर्म, अधर्म, आकाश तथा शुद्ध स्वरूपी जोव, ये सब द्रव्य नित्य ही हैं ॥ ४१ ॥ पुद्गल तथा जीव इन दोनों द्रव्यों में हिलन-डुलन आदि सब हो क्रियाएँ होती हैं। शेष चारों द्रव्योंमें स्वतः कोई क्रिया नहीं होती है । समस्त द्रव्योंमें एक आकाश ही व्यापक तथा विभु द्रव्य है, शेष पाँचोंके पाँच द्रव्य अव्यापि हैं ।। ४२ ।। पुद्गल द्रव्यकी हो यह विशेषता है कि वह कार्य भी होता है और दूसरोंका कारण भी बनता है; किन्तु शेष जीव, धर्मं, अधर्म, आकाश तथा काल ये पांचों द्रव्य कारण ही होते हैं, किसी दूसरेके कार्य न कभी थे, न हैं, और न होंगे ।। ४३ ।। [ ५१९ ] अर्हन्त केवली के उपदेश के आधारपर प्रचलित जैनदर्शन कहता है कि केवल पुद्गल द्रव्य ही कर्ताकी अपेक्षा करता है। तथा स्वयं भी कर्तृत्ववान् या कर्ता होता है, किन्तु शेष पांचों द्रव्यों को यही विशेषता है कि कोई अन्य द्रव्य कभी भी उनका कर्ता नहीं होता है ॥ ४४ ॥ इन पांचों द्रव्योंका सत्य ज्ञान प्राप्त करनेके उपाय दो हो है प्रथम है प्रमाण ( वस्तुको सकल पर्यायोंका ज्ञान ) तथा नय ( एक अंशका ज्ञान ) दूसरा है। प्रमाणको साधारणतया प्रत्यक्ष ( साक्षात् ज्ञान ) तथा परोक्ष ( परम्परासे ज्ञान ) इन दो भागों में विभक्त किया है ।। ४५ ।। Jain Education International षड्विंशः सर्गः For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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