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________________ वराङ्ग चरितम् प्रत्यक्षं भिद्यते त्रेधा सावधिश्चित्तपर्ययः । रूपिद्रव्यनिबद्धौ तौ केवलं विश्वगोचरम् ॥ ४६ ॥ परोक्षं तर्हि निर्दिष्टं विधा तत्त्वार्थदशभिः । सप्रभेदा मतिश्चैव विविकल्पमपि श्रुतम् ॥ ४७ ॥ संक्षेपतो नयौ द्वौ तु द्रव्यपर्यायसंसृतौ' । तन्मात्रस्याभिवित्सायामर्थशब्दविशेषितौ ॥ ४८ ॥ तयोर्भेदा नया जैनैराख्याता नैगमादयः । नीयते यैरशेषेण लोकयात्रा विशेषतः ।। ४९ ।। नैगम: संग्रहश्चैव व्यवहारस्तथैव च । द्रव्यार्थिकनयस्यैते भेदाः प्रोक्ताः मनीषिभिः ॥ ५० ॥ ऋजुसूत्रश्च शब्दश्च तथा समविरूढकः । इत्थंभूतश्च चत्वारो विकल्पाः पर्ययार्थिनः ॥ ५१ ॥ नाम च स्थापना चैव द्रव्यं द्रव्यार्थिकस्य च । निक्षेपादित्रयः प्रोक्ता भाव एवेतरस्य च ॥ ५२ ॥ ज्ञान कारण प्रत्यक्ष के भी तीन भेद किये हैं उनमेंसे पहिला है अवधिज्ञान ( निश्चित मर्यादाके भीतर स्थित इन्द्रियोंसे दूर पदार्थोंका ज्ञाता ) तथा मनःपर्यायज्ञान ( मानसिक भावोंको भी निश्चित सीमाओं में जाननेवाला ज्ञान ) ये दोनों रूपी अथवा मूर्तिमान द्रव्यको ही जानते हैं किन्तु तीसरा प्रत्यक्ष केवलज्ञान तो विश्वके समस्त पदार्थोंको सर्वथा हो जानता है ॥ ४६ ॥ तत्त्वमीमांसा में पारंगत आचार्योंने परम्परया पदार्थों के ज्ञाता परोक्षज्ञानके दो ही भेद किये हैं । उनमें अपने अनेक प्रभेदों युक्त मतिज्ञान पहिला है तथा दो भेदों में विभक्त श्रुतज्ञान दूसरा है ॥ ४७ ॥ नय प्रमाण पदार्थको किसी एक अपेक्षासे ही जाननेवाला नयज्ञान संक्षेपसे दो भागों में ही विभक्त है क्योंकि उसके आधार द्रव्य तथा पर्याय भी दो ही हैं। क्योंकि नय पदार्थ की एक निश्चित अवस्थाको ही जानना चाहता है। आपाततः उसके अनुकूल ही शब्द अर्थको विशेष रूपसे उपयोगमें लाता है ॥ ४८ ॥ जैनाचार्योंने इन दोनों नयोंके ही नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसुत्र, शब्द, समभिरूढ तथा एवंभूत ये प्रधान भेद किये हैं। इन नयोंके सहारे हो संसारके समस्त व्यवहार बिना अव्यवस्था के चलते हैं ॥ ४९ ॥ पूर्वोक्त द्रव्यार्थिक नयके तोन भेद हैं जिनके नाम नैगम, संग्रह तथा व्यवहार हैं। इन तीनों भेदों को लेकर ही प्रखर बुद्धि विचारकोंने इस संसारके अनेक विषयोंकी व्यवस्था की है ॥ ५० ॥ वस्तु तव विशेष परीक्षक आचार्योंने पयार्यार्थिक नयके ऋजुसूत्र, शब्दनय और उससे भी सूक्ष्म विषयग्राही समभिरूढ तथा इत्थंभूत ( एवंभूत) ये चार प्रधान विकल्प किये हैं ।। ५१ ।। निक्षेप जगत के सचराचर पदार्थोंको नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भाव आदिकी कल्पना करके भी जाना जाता है, इसीलिए इन्हें १. ( तद्धि ) । २. (संश्रिती ) । ३. ( समभिरूढक: ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only षर्विश: सर्गः [ ५२० ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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