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दशमः
सर्गः
गोत्रायुषी नाम च वेदनीयं चत्वारि तान्यप्रतिवीर्यवन्ति । कर्माणि संचूर्ण्य विधूतदोषा लोकोत्तरेऽनन्तसुखं लभन्ते ॥ २३ ॥ तुम्बीफलं मृत्प्रविलेपमुक्तं यथोदकस्योपरि तिष्ठतोह । कृती तथा कर्मविलेपमुक्तस्त्रिलोकमूर्धानमुपैति सद्याः ॥ २४ ॥ यथैव बीजं हुतभुक्प्रतप्तं न कल्पते तत्पुनरङकुराय। तपोऽग्निभस्मीकृतकर्मबीजं तथैव नालं पुनरुद्धवाय ॥२५॥ तालद्रुमश्च प्रतिलूनमूर्धा नासंभवादङ कुरमादधाति । स्नेहक्षयाचिरुपैति शान्ति तथैव कर्मक्षयतस्तु सौख्यम् ॥ २६ ॥ यथैव लोके नलवतितलं प्रभातकाले युगपत्प्रयाति ।। तथैव कर्माणि समानि येषां ते निर्वृति तत्क्षणतो व्रजन्ति ॥ २७॥
गोत्रकर्म, नामकर्म, वेदनीयकर्म तथा आयुकर्म इन अनुपम शक्तिशाली चारों अघातिया पापकर्माको भी आत्मशक्तिके प्रहारसे चकनाचूर करके समस्त दोषोंको हवा कर देता है। अन्तमें यह आत्मा इस संसारके परेके अतीन्द्रिय सुखको प्राप्त करता है ॥ २३ ॥
मुक्तजीवका ऊर्ध्वगमन मिट्टीका लेप लगाकर जल में फेंका गया तुम्बोफल लेप गल जानेपर जिस प्रकार तुरन्त ही पानीके ऊपर आ जाता है, उसी प्रकार तपस्या करके कर्मबन्धको नष्ट करनेमें सफल जोव भी संसारसे मुक्त होकर तीनों लोकोंके मस्तक समान प्रारभार पृथ्वीपर सीधे चले जाते हैं ।। २४ ।।
आगके ऊपर तपाया गया अथवा आगकी लपटोंसे झुलसा हुआ बीज उर्वराभूमिमें बोये जानेपर भी जिस प्रकार अंकुरको उत्पन्न नहीं करता है उसी प्रकार उग्र तपरूपी ज्वालासे झुलसा गया कर्मरूपी बीज फिर कभी भी पुनर्जन्मरूपी अंकुरको । उत्पन्न करनेमें समर्थ नहीं होता है ।। २५ ।।
यदि तालवृक्षके ऊपरके पत्ते एक बार पूरे काट दिये जाँय तो उसमें नतन अंकुरकी उत्पत्ति असम्भव हो जाती है फलतः उसमें फिर डालपात नहीं ही आते हैं यही अवस्था एक बार पूर्णरूपसे क्षय हुए कर्मोकी है। स्वाभाविक सुखादिको आत्मा उसी तरह प्राप्त होता है जिस प्रकार तैलके नष्ट हो जानेपर दीपककी लौ शान्त हो जाती है ।। २६ ॥
दीपककी वर्ती या नलीमें चढ़नेवाला तेल जैसे प्रभात समयमें अकस्मात् समाप्त हो जाता है और दीपक शान्त हो।
सामान्यतयRIमनाया
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