SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वराङ्ग चरितम् केचित्समुद्धामुपेतुकामा ' आत्मप्रवेशात्समयैश्चतुभिः । लोकत्रयं व्याय समीकृत्य कर्माणि निर्वान्ति विनष्टबन्धाः ॥ २८ ॥ एकाधिकास्त्वष्टशतान्तसंख्याः सिध्यन्ति सिद्धाः समयेन राजन् । जघन्यकालः समयस्त्वथैकः " षडेव मासा यदि सोऽधिकः स्यात् ॥ २९ ॥ आरोहकाः षट् समये जिनेन्द्राः प्रत्येकबुद्धान्दशधा वदन्ति । बोध्यान्पुनस्त्वष्टशतप्रसंख्यान् स्वर्गच्युतास्तेऽष्टशता भवन्ति ॥ ३० ॥ द्वावेव सोत्कर्षशरीर संस्थौ हस्वान्पुनस्तांश्चतुरो वदन्ति । मध्या तथाष्टौ समये प्रसिद्धाः समानदेहाः सुगति प्रयान्ति ॥ ३१ ॥ जाता है, उसी प्रकार जिन जीवों के अघातियाकर्म एक हो अनुपात में शेष रह जाते हैं, वे सब जीवनके अन्तिम क्षणमें एक साथ समाप्त हो जाते हैं और जीव शुद्ध स्वरूपको पा जाता है ॥। २७ ॥ समुद्धात जिन जीवों के शेष आयुकर्म तथा अन्य कर्मोंमें विषमता होती है वे समुद्धात करनेके प्रयोजनसे अपने आत्म प्रदेशोंको चार समयके भीतर हो सारे लोकमें फैला देते हैं। इस प्रकार अन्य कर्मोकी स्थिति भी आयुकर्मके अनुपातमें हो जाती है । फलतः वे अन्त समय में सब कर्मोंको नष्ट करके निर्वाणको प्राप्त होते हैं ॥ २८ ॥ निर्वाण संख्या हे राजन् ! किसी भी एक समयमें इस संसारसे यदि अधिक से अधिक जीव मुक्ति पावें तो उनकी संख्या आठ अधिक एक सो अर्थात् एक सौ आठ ही होगी। इस संसारके जीवोंको मुक्ति जानेमें कमसे कम अन्तराल एक 'समय' पड़ता है और यदि अधिक से अधिक लगा तो छह महीना भी हो सकता है ।। २९ ।। एक समय में अधिक से अधिक छह तीर्थंकर क्षपकश्रेणी चढ़ सकते हैं। इसी प्रकार यदि 'प्रत्येकबुद्ध' केवल एक साथ श्रेणी आरोहण करें तो एक समयमें उनकी संख्या दशसे अधिक न होगी। तथा बोधित-बुद्ध क्षपकश्रेणी आरोहकोंकी संख्या भी एक समय में एक साथ श्रेण्यारोहणकी दृष्टिसे एक सौ आठसे अधिक न होगी क्योंकि इस प्रकारके चरम- शरीरी जीव स्वर्गसे एक समय में अधिक से अधिक एक सौ आठ ही च्यवन ( आ सकते ) करते हैं ॥ ३० ॥ सोत्कर्षं शरीर धारी अधिकसे अधिक दो ही एक समय में सिद्ध हो सकते हैं तथा जिनके शरीर उत्कर्षादिसे होन हैं ऐसे १. म समुद्र । २. [ समं प्रकृत्य ] । Jain Education International ३. क समयस्तथैकः । For Private & Personal Use Only दशमः सर्गः [ १६६ ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy