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________________ वराङ्ग चरितम् विनयशीलविचित्रसमन्वितं बहुजनप्रियमप्रतिपौरुषम् । परमधार्मिकमाहववल्लभं समुपलभ्य न चाहमवञ्चितः ॥ १३ ॥ स्वतनदुर्बलतां जरयान्वितां परिभवं रिपुभिः कृतमात्मनः। वरतनोश्च गुणाननसंस्मरन्न च शशाक स 'घोरेयितु धृतिम् ॥ १४ ॥ युवन पस्य ततः प्रपलायनं विबलतामुपलभ्य च भूपतेः । हयरथद्विपवेशधनेच्छया रिपुन पस्त्वरया पुनराययौ ॥ १५ ॥ दलितभागतया वयमास्थिता विषयभाग इतो भवतामिति । जनपदार्धमथ प्रविरुध्य तत्प्रविससर्ज ततः स वचोहरम् ॥१६॥ विंशतितमः सर्गः टात योग्य पुत्रको स्मृति आह वराङ्ग ! तुम्हारा उदार स्वभाव तथा आन्तरिक विनम्रता कितनी विचित्र थी। कौन ऐसा व्यक्ति था; जिसे तुम परम प्रिय न थे । तुम्हारा पुरुषार्थ ! संसारमें कौन उसकी बराबरी कर सकता है ! तुम्हारी धर्म रीति भी अन्तिम सीमा तक पहुँच चुकी थी । तथा युद्ध ? वह तो तुम्हारा परमप्रिय खेल था। मैंने तुम्हें पाया था और खो दिया ॥ १३ ॥ क्या मैं दैवके द्वारा नहीं ठगा गया हूँ।' इसके साथ-साथ उन्हें अपनी बुढ़ौतीका ख्याल आता था तथा बुढ़ापेसे आक्रान्त होनेके ही कारण दुर्बल अपने शरीरको देखते थे, शत्रुओंके द्वारा किये गये अपने अपमानका विचार भी असह्य था तथा युवराज वरांगकी योग्यताएँ और विशेषताएँ भी न भूल सकते थे । इन सब कारणोंसे उन्हें उस समय धैर्य धारण करना ही असंभव हो रहा था । १४ ।। शत्रुको सुअवसर शत्रु राजाको जव यह समाचार मिला कि भयके कारण युवराज समरांगणसे भाग गया है और महाराज धर्मसेन वृद्धावस्थाके कारण अत्यन्त दुर्बल हैं तो वह उत्तमपुरकी विशाल अश्व, रथ तथा गजसेना, अत्यन्त विस्तृत देश तथा विपुल धनराशिसे परिपूर्ण कोशको लेनेके लोभको न रोक सका, फलतः उसने शीघ्रताके साथ राजधानीकी दिशामें बढ़ना प्रारम्भ कर। दिया था ॥ १५ ॥ इस गतिसे बढ़ती हुई उसकी सेनाने आधे उत्तमपुर राज्य पर अपना अधिकार कर लिया था। इसके बाद उसने 'हमने जितने भागको सैनिक बलका प्रयोग करके जीत लिया है, वहीं तक आकर हम रुक गये हैं। यदि आप चाहें तो हमारे तथा R आपके राजका विभाजन इस नयी सीमाको मानकर हो सकता है।' इस संदेशको लेकर दूतको भेजा था ॥ १६ ॥ 1 १. [ धारयितु] [३८१] Jain Education interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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