SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 413
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वराङ्ग चरितम् परनरेन्द्रबलेन विमदितं स्वविषयं परिभूय' महाजनम् । अथ कदाचिदवेत्य युवाधिपः स्वयमियाय स े योद्धु मना बलैः ॥ ९ ॥ रथपदातितुरङ्गमवारणैः समुपगम्य भृशं युयुधे युधि रिपुनृपोऽतिरुषा भृकुटीपुटः प्रतिजघान सुषेबलं बलात् ॥ १० ॥ युवनपोऽभिहतो रिपुसेनया क्षणविभिन्नविचूर्णितशासनः । अथ जितः समरे सतुरङ्गमो द्रुततरं प्रययौ पुरमात्मनः ॥ ११ ॥ रिपुनरेन्द्रबलाहतपौरुषं प्रतिनिवृत्तमवेक्ष्य पुनः सुतम् । नरपतिश्चिरमात्मनि संस्मरन् वरतनोः स्मृतवान्बहुशो गुणान् ॥ १२ ॥ एक दिन युवराज सुषेणको समाचार मिला था कि उसके राष्ट्र पर किसो शत्रुको सेनाने आक्रमण कर दिया है, वह देशको रौंदता हुआ तथा शिष्ट सज्जन नागरिकोंका अपमान करता हुआ आगे बढ़ा आ रहा है। इसे सुनते ही युवराज मन ही मन संग्राम करने का निर्णय करके सेनाको लेकर स्वयं शत्रुके विरुद्ध चल दिया था ।। ९ ।। शत्रुका आक्रमण रथ, हस्ति, अश्व तथा पदातिमय अपनी चतुरंग सेनाके साथ समरस्थलीमें पहुँचकर सुषेणने बड़ी तत्परता तथा युक्ति के साथ शत्रुसे घोर युद्ध किया था। किन्तु शत्रु राजाने क्रोधके परिपूर्ण आवेशमें होनेके कारण अपनी भृकुटी टेढ़ी करके सुषेणकी सेनापर प्रत्याक्रमण किया था और सब ओरसे घेरकर उसका संहार करना प्रारम्भ कर दिया था ॥ १० ॥ मूढधीका पराभव जब युवराज सुषेणकी सेना पर शत्रुकी सेनाने घेरकर भयंकर प्रहार करना प्रारम्भ किया तो क्षण भर हो में उत्तमपुर की अजेय सेनाका अनुशासन टूट गया था और वह इधर-उधर छिन्न-भिन्न हो गयी थी। फल यह हुआ कि वह संग्राममें शत्रुसे हार गया था और निरुपाय होकर एक घोड़े पर आरूढ़ होकर बड़े वेग से भागकर अपनी राजधानीको चला आया था ॥ ११ ॥ शत्रु सेना के अभिघातोंकी मारसे अपने पौरुष और पराक्रमको धूलमें मिलाकर भीरुओंके सदृश राजधानीको भाग आनेवाले अपने पुत्रको देखकर महाराज धर्मसेनको ज्येष्ठ पुत्रका स्मरण हो आया था। वे मन ही मन दीर्घं समय तक उसके पराक्रम आदि गुणोंका विचार करते रहे । तथा उन्हें रह-रहकर वरांगकी स्मृति दुखी कर देती थी ॥ १२ ॥ १. [ परिभूत° ] । २. म रुषा स बलान्वितः । Jain Education International ३. [ भृकुटीधरः ] । For Private & Personal Use Only विशतितमः सर्गः [ ३८० ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy