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विंशतितमः
वराङ्ग चरितम्
पुनरितः क्रमतः पितृपुत्रतोः अमितसत्त्वपराक्रमधैर्ययोः । प्रवरधर्मसपूर्ववरामयोः यदभवत्कथयामि तदीक्ष्यतां ॥५॥ अपहृते सुसते वरवाजिना नरपतेर्मनसोऽसुखशान्तये। मतिवरप्रमुखा नपमन्त्रिणः समभिमन्त्र्य सुषेणमतिष्ठिपन् ॥ ६॥ युवनृपत्वमवाप्य नृपात्मजः प्रतिविबुद्धनवाम्बुरुहाननः । भृशतरं स कृतार्थतया बभौ गतघने च निशीव निशाकरः ॥७॥ उदितबालदिवाकरतेजसो विषयरागवशीकृतचेतसः। जगदनर्थगणात्परिरक्षतः कतिपयानि दिनान्यगमन्सुदा ॥८॥
सर्गः
अयोग्य राजा सुषेण इसी अन्तरालमें वियोगको प्राप्त महाराज ( जिनके नाममें सेनके पहिले धर्म है ) धर्मसेन तथा युवराज वरांगको लेकर उत्तमपुरमें क्रमशः क्या-क्या घटनाएँ घटीं उन्हें ही मैं कहता है, आप लोग उन्हें सुनें। यह तो सब ही जानते हैं कि इन पिता तथा पुत्र दोनोंकी ही शक्तिकी कोई सीमा न थी, ये (शक्ति) के ही समान उनके पराक्रम तथा र्यका परिमाण बतलाना भी असम्भव ही था॥५॥
सुयोग्य राजपुत्र वरांगके कुशिक्षित हृष्ट पुष्ट तथा सुन्दर घोड़ेके द्वारा अकस्मात् गायब किये जाने पर महाराज धर्मसनका चित्त अत्यन्त व्याकुल हो गया था। अतएव उनके चित्तको शान्त करनेके लिए ही मतिवर आदि राज्यके मन्त्रियोने आपसमें विचार विमर्श किया था और राजाकी प्यारी रानीके पुत्र सुषेणको ही राजसिंहासन पर बैठा दिया था ॥६॥
राजपुत्र सुषेणको ज्योंही युवराजके पदकी प्राप्ति हुई त्योंही उसका मुख आनन्दके कारण पूर्ण विकसित नूतन कमलके समान सुन्दर और आकर्षक हो गया था। काफी समय बाद अपनी मानसिक कामनाके पूर्ण होनेके कारण उस समय उसकी शोभा असाधारण रूपसे बढ़ गयो थी। उस समय उसका आल्हाद देखकर उस चन्द्रश्रीका स्मरण हो आता था जिस परसे रात्रिम ।
तुरन्त ही धनी मेघ घटा हट गयी हो ॥ ७॥ WE सुषेणका तेज समय प्रातःकाल उदीयमान बालभानुके समान था। उसका चित्त राज्य सम्बन्धी दायित्वोंकी अपेक्षा
विषय भोग और राग रंगकी ओर अधिक आकृष्ट था । अतएव बह कुछ दिन पर्यन्त ही अपने राज्यको उपद्रव आदि अन से बचा सका था और स्वयं आनन्दपूर्वक दिन बिता सका था ॥८॥
यनियमाचEIAS
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१. [°धर्मजपुण्य ]]
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