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________________ F बराङ्ग 'चरितम् तेभ्यो नमः प्रयतकायमनोवचोभिः कृत्वा जगत्त्रयविभूतिशिवंकरेभ्यः । धर्मार्थकामसहितां जगति प्रवृत्तां वक्ष्ये कथां शृणुत मोक्षफलावसानाम् ॥ २२ ॥ आसव निजगुणैहयमादधानः पुंसां समुन्नतधियां स निवासभूमिः । भश्रियः कुरुभुवः प्रतिबिम्बभूतो नाम्ना विनीतविषयः ककुदं पृथिव्याम् ॥ २३ ॥ लोकस्य सारमखिलं निपुणो विचिन्त्य सत्संनिवास भुवनैकमनोरथेन । यं निर्ममे स्वयमुदाहृतरत्नसारं धर्मार्थकामनियमाच्च निधि विधाता ॥ २४ ॥ यस्मिन्दिशश्व रहितालि विपिञ्जराभा यन्नार्ते इभुवन पीलितदुः प्रचाराः (?) । रक्तोत्पलामलदलैरुपहारितास्ते कालागरुप्रततधूपवहाश्च गेहाः ॥ २५ ॥ प्रत्थकार की प्रतिज्ञा तीनों लोकों की सम्पत्ति और सुखप्राप्तिके मार्गके उपदेष्टा वीतराग सद्गुरुओंको विनीत मन, वचन और कायसे साष्टांग नमस्कार करके उस कथा को कहूँगा जो इस संसारमें धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थके परस्पर अविरोधी आचरणसे सुशोभित हुई थी । और जिसका अन्त मोक्ष लक्ष्मीकी प्राप्तिमें हुआ था । आप लोग सावधान होकर सुनें ॥ २२ ॥ विनीत देश इस पृथ्वीपर ककुदके समान सर्वथा समुन्नत विनीत नामका देश था। उसकी सुख समृद्धि आदि विशेषताओंके सामने स्वर्गं भी लजाता था । वह अपनी भोग-उपभोगोंकी प्रचुर सम्पत्तिके कारण देवकुरु, उत्तरकुरु भोगभूमियोंका प्रतिबिम्ब-सा लगता था और उसमें बड़े-बड़े ज्ञानी तथा उदारपुरुष निवास करते थे ॥ २३ ॥ सज्जनोंके सुखपूर्वक निवास करने योग्य एक अलग ही लोक बनानेकी इच्छुक प्रकृतिने संसारके सारभूत सब ही पदार्थोंको कुशलतासे इकट्ठा करके, धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थोंकी मर्यादाओंको दृष्टिमें रखते हुए इस विनीत देशको ऐसे ढंग से बनाया था कि इसे देखते ही संसारके सब रत्नों ( श्रेष्ठ वस्तुओं) के नमूने आँखोंके आगे आ जाते थे || २४ ॥ वहाँपर दिशाओं का रंग हरितालके समान हल्का पीला और सफेद सा रहता था। दोनों ओर लहलहाते ईखके खेतोंकी सघन पंक्तियोंके मारे रास्तोंपर चलना भी अति कठिन था । रास्ते रास्ते और गली-गली में पूजाके समय बलि चढ़ाई गयीं लाल कमलोंकी पंखुड़ियाँ बिखरी रहती थीं, मकानोंकी खिड़कियोंसे हर समय कालागरु धूप, आदि सुगन्धित पदार्थों का धुंआ निकलता रहता था ।। २५ ।। १. म भोगश्रिया । Jain Education International २. [ निपुणं ] । ३. [ हरिताल° ] । ४. [ पन्थान ] । For Private & Personal Use Only प्रथमः सर्गः [७] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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