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________________ प्रथमः बराङ्ग चरितम् यस्मिन्वनानि फलपुष्पनताग्रशाखाविभ्राजितानिलविकम्पिमहीरुहाणि । स्वादुम्बुकोमलतृणानि दिवा निशीथे घोषाः प्रतिध्वनितमन्द्रगुणा गुणाढ्याः॥२६॥ सन्तो नरा युवतयश्च विदग्धवेषा रागोत्तरासु सकलासु कलास्वबाह्याः । अन्योन्यरञ्जनपराः सततोत्सवाश्च सौख्येन किन्नरगणानतिशाययन्ति ॥ २७॥ देशाविहाय हि पूराध्यषितान्कलज्ञाः शिल्पावदातमयश्चनटा विटाश्च । रनोपजीवनपराः पुरुषाः स्त्रियश्च यस्मिन्पुनर्बहुविशेषगुणा वसन्ति ॥ २८ ॥ रत्नोपलाग्रपरिचुम्बितमेघमालो नानादरीमुखविनिःस्रतनिर्झरोघः । सौम्याचलः फणिमणिक्षपितान्धकारस्तस्मिन्बभूव हिमवानिव तुङ्गकूटः ।। २९ ॥ सर्ग: इस देशके जंगलों में ऐसे ही वृक्षोंकी भरमार थी जो फूल और फलोंके भारसे पृथ्वीको चूमते थे । ये वृक्ष जब तीव्र वायुके झोकोंसे झूमते थे तब वनका दृश्य बड़ा ही हृदयहारी होता था। इन वनोंमें सुकुमार छोटी-छोटी हरी दूबका फर्श बिछा था और ॥ मधुर जलपूर्ण तालाबोंको भरमार थी। इसीलिए दया, उदारता, आदि गुणोंके धनी पुरुषोंसे परिपूर्ण ग्वालोंकी बस्तियोंसे दिनरात गाने-बजाने की मधुर और गम्भीर प्रतिध्वनि आती रहती थी ॥ २६ ॥ इस देशके पुरुष भले नागरिक थे । युवतियोंका वेशभूषा व आचरण शिष्ट था। शिक्षा, स्वास्थ्य, संगीत, चित्रकला, प्रेमप्रसंग, आदि कोई भी ऐसी कला न थी जिससे वहाँके युवक और युवतियाँ अनभिज्ञ हों। वे प्रतिदिन कोई न कोई उत्सव मनाते थे तथा एक-दुसरेको लुभाने और प्रसन्न करनेके लिए पृथ्वी-आकाश एक कर देते थे। अपने इन सुखभोगोंके द्वारा वे किन्नर देवताओंकी जोड़ियोंको भी मात करते थे ॥ २७ ॥ बड़े से बड़े प्रसिद्ध कलाकार, वर्षोंके अनुभवके कारण निर्दोष और तीक्ष्ण बुद्धि शिल्पी, नट, विट तथा अभिनय और । संगीतके द्वारा ही आजीविका करनेवाले कुशल स्त्री और पुरुष अपने निवासके प्राचीन देशोंको छोड़कर इस ( विनीत ) देशमें आ बसे थे क्योंकि यहाँ आकर बसनेसे उनके गुण केवल उत्तरोत्तर बढ़ते ही न थे अपितु वे नयी-नयी विद्याएँ सीखकर बहुज्ञ भी हो में जाते थे ॥ २८ ॥ सौम्याचल इस विनीत देशमें सौम्याचल नामका पर्वत था। जिसके ऊँचे-ऊँचे शिखर हिमालय पर्वतकी बराबरी करते थे। रत्नशिलाओसे परिपूर्ण इसके शिखर मेघमालाको चूमते थे। इस पर्वतको कितनी ही गुफाओंसे कल-कल निनाद करते झरने । बहते थे। इसमें ऐसे-ऐसे विचित्र और भीषण साँप रहते थे जिनके फणके मणियोंकी चमकसे अंधेरी रातमें भी प्रकाश हो जाता था ॥ २९ ॥ १. [कलाझाः | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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