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________________ रविचन्द्रमसोः ग्रहपीडां (?) परपोषत्वमथेन्द्रमन्त्रिणश्च । विदुषां च दरिद्रता समीक्ष्य मतिमान्कोऽभिलषेद्ग्रहप्रवादम् ॥ ३६॥ जगदीश्वरशासनाद्यदि स्यात्परपक्षप्रभवविलुप्तताहिनस्यात् । कुलजातिवपुर्वयोविशेषान्न' च युक्त्या घटते तदुप्सनीयम् ॥ ३७ ॥ अथ सर्वमिदं स्वभावतश्चेन्ननु वैयर्थ्यमुपैति कर्मकर्तुः। अकृतागमदोषदर्शनं च तदवश्यं विदुषामचिन्तनीयम् ॥ ३८ ॥ चतुर्विशः वराङ्ग सर्गः चरितम् उग्र तेजस्वो सूर्य तथा जगतको मोहमें डालनेके योग्य अनुपम कान्ति तथा सुधाके अनन्त स्रोत चन्द्रमाका दूसरे ग्रहों (राहु तथा केतु ) के द्वारा ग्रसना, इन्द्रके प्रधानमंत्री अनुपम मतिमान वृहस्पतिका दूसरोंके द्वारा भरण-पोषण तथा इस लोकके सुविख्यात मौलिक विद्वानोंकी दारुण दरिद्रताको देखकर कौन ऐसा बुद्धिमान व्यक्ति है जो कि इस लोकप्रवाद पर विश्वास करेगा कि संसारके सुख-दुखके कारण सूर्य, आदि ग्रह ही हैं ।। ३६ ॥ नाम-चामान्य जगदीश्वरवाद यदि संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और विनाश किसी जगदीश्वरकी इच्छा या शासनसे ही होते हैं तो प्रश्न यही उठता है कि जिस समम उत्पत्ति हो रही है उसी समय उसके विपरीत पक्ष अर्थात् विनाशका किसी भी अवस्थामें अभाव न हो सकेगा। इसके अतिरिक्त संसारमें पग, पगपर दिखायी देने वाले, कुल तथा जातिका नीचा-ऊँचापन, शरीरके स्वास्थ्य आदिमें भेद, अवस्थाकी न्यूनाधिकता आदि अनेक दृष्टियोंसे किये गये भेद किसी भी अवस्थामें सिद्ध न हो सकेंगे। यदि प्रतिवादी कहे; न । हों, क्या हानि ? तो यही कहना है कि वे साक्षात् देखे जाते हैं फलतः उनका अपलाप कैसे किया जा सकता है ।। ३७ ।। यदि संसारकी उत्पत्ति आदि अनेक भेद परिपूर्ण प्रपंचका मूल कारण केवल स्वभावको ही मानेंगे तो कर्ताके समस्त । शुभ तथा अशुभ कर्म कुछ भी करनेमें समर्थ न होनेके कारण सर्वथा व्यर्थ हो जायेंगे। जीव जिन कर्मोंको नहीं करेगा उनका फल भी उसे प्राप्त होगा, तथा इसी ढंगसे किये कर्मका फल न पाना आदि अनेक दोष संसारकी व्यवस्थामें आ जावेंगे। यह सब ऐसे T नाशक दोष होंगे कि नियमसे ऐसे दोषोंकी कोई विद्वान व्यक्ति कल्पना भी नहीं कर सकता हैं ।। ३८ ॥ rl ११. [विशेषो न ]1, २.[तदीप्सनीयम् । ३.[विदुषा हि चिन्त° ] www.jainelibrary.org Jain Education international For Private & Personal Use Only
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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