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________________ वराङ्ग चरितम् ग्रहयोगबलाच्छुभं भवेन्चेत्स च रामः प्रियया कथं विहीनः । मविनास्यु' शनः प्रयुक्तनीतिः सकलत्रः स च रावणो विनष्टः ॥ ३२ ॥ बलिनो बलवान्न चास्ति लोके स च बद्धो रिपुणा मुरारिणासौ । जगति प्रथितः स कामदेवः सशरीरस्तु पिनाकिना स दग्धः ॥ ३३ ॥ धनवीर्यपराक्रमातिसत्वो मघवान्देवगुरुप्रणीतचक्षुः 1 बहुमित्रसुमन्त्रभृत्यकोशः स च शप्तः किल गौतमेन तेन ॥ ३४ ॥ धरणीसुत उग्रवीर्यतेजा ग्रहराजः स च रावणेन बद्धः । बृहतां पितरप्रमेयवृद्धिः सकलत्रो भ्रियते स वासवेन ॥ ३५ ॥ यदि शुभग्रहों के मिलने से हो सुख सम्पत्ति होती है तो क्या कारण है कि श्रीरामचन्द्रका अपनी प्राणाधिकासे वियोग हुआ था, क्योंकि उनकी तथा सीताजीकी कुण्डली तो बहुत सुन्दर रूपसे मिली थी। ग्रहोंके गुरु शुक्र आचार्यके द्वारा उपदिष्ट नीति यदि ऐसी है कि उसका पालन करनेपर कभी किसीकी हानि हो ही नहीं सकती है तो वह रावण जो कि उसका विशेषज्ञ ना वही क्यों अपनी स्त्री तथा बच्चोंके साथ सदाके लिए नष्ट हो गया ।। ३२ ॥ इस संसार में राजा बलि से बढ़कर कोई शक्तिशाली व्यक्ति नहीं हुआ है किन्तु उसको भी मुराके शत्रु श्रीकृष्ण ने विशेष आयासके बिना ही बुरी तरप बाँध दिया था और मार डाला था । संसार भर में यह प्रसिद्ध है कि कामदेव के समक्ष कोई नहीं टिक सकता है वह सर्वविजयी है। किन्तु उसे भो त्रिशूलधारी रुद्र श्रीशिवने हराया ही नहीं था अपितु उसको सशरीर भस्म ही कर दिया था ।। ३३ ॥ देवराज इन्द्र धन, वीर्य, पराक्रम और असाधारण साहसिकता तीनों लोकों में प्रसिद्ध हैं । देवताओंके गुरु श्रीशुक्राचार्यके द्वारा उपदिष्ट नीतिकी कसौटीपर ही वे सब वस्तुओंकी परीक्षा करते हैं। उनका नाम मघवान ही उनकी पुण्यकार्य करने की प्रबल प्रवृत्तिको स्पष्ट कर देता है। उनके हितैषी मित्र अनेक हैं, सब हो मंत्रो उपयुक्त सम्मति देने में पटु हैं, आज्ञाकारी सेवकोंकी तो बात ही क्या कहना है तथा कोश उनका अनन्त है। किन्तु यह सब होनेपर भो उन्हें इस पृथ्वीपर उत्पन्न हुए गौतम ऋषिने अभिशाप दे दिया था जिसके कारण उनकी दुर्दशा हो गयी थी ॥ ३४ ॥ पृथ्वीके पुत्र मंगलग्रह के प्रचण्ड पराक्रम तथा दूसरोंको भस्म करनेमें समर्थ उग्रतेजकी पूरे संसारमें ख्याति है । किन्तु जिस समय लंकेश्वर रावण उसपर कुपित हो गया था, उसके वीर्य आदि गुण काम नहीं आये थे तथा रावणके कारावासमें पड़ा सड़ता रहा था। सरस्वती के द्वारा स्वयं वरण किये गये बुद्धिके अवतार वृहस्पति के पास इतनो अधिक समृद्धि है कि उसका अनुमान करना भी असंभव है, किन्तु यह सब होनेपर भी इनका तथा उनकी पत्नीका भरण पोषण इन्द्रके ही द्वारा किया जाता है ||३५|| १. [ अविनाश्युशन ] | Jain Education International For Private & Personal Use Only चतुर्विंश: सर्गः | ४७४ ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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