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________________ वराङ्ग चरितम् पर्याप्त्यपर्याप्तकसंक्यसंज्ञाः पञ्चेन्द्रियास्ते च चतुष्प्रकाराः । भूम्यम्बुवाय्वग्निवनत्रसानां कायश्च षड्जीवनिकायमाहः॥४॥ भूयम्बुवाय्वग्निमयास्तु जीवा भवन्ति लोके गणनाव्यतीताः। वनस्पतीनामसवस्त्वनन्ताः स्पर्शात्सुखं दुःखमथो विदन्ति ॥ ५॥ शलाक्षक्षिक्रिमिशक्तिकाद्यास्ते द्वीन्द्रियाः स्पर्शरसौ विदन्ति । पिपीलिकामतकूणवश्चिकाद्यास्ते त्रीन्द्रियाः स्पर्शरसौ च गन्धम् ॥ ६ ॥ पतङ्गषट्पाद्मधुमक्षिकाद्याः स्पर्श रसं गन्धमथापि रूपम् । मगोरगाण्डोद्धवतोयजाद्याः शब्देन पञ्चेन्द्रियजातयस्ते ॥७॥ षष्ठः सर्गः GIRLमाजच्यामचमाता ISSAGEGARDERatoParuaa पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके दो भेद होते हैं संज्ञो (मन सहित ) और असंज्ञी, ये दोनों भी पर्याप्तक और अपर्याप्तक, फलतः पंचेन्द्रियके भी चार भेद होते हैं। इस प्रकार सब ( एकेन्द्रिय चार, दो, तीन, चार इन्द्रिय प्रत्येक दो छः और पंचेन्द्रिय ४ ) मिलाकर चौदह होते हैं। षटकाय जीवोंके समुदायका निवास पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, वनस्पति और (दो इन्द्रिय आदिके ) त्रस शरीरमें होता है, । अतएव इन्हीं छहको षड् जीवनिकाय कहते हैं ।। ४ ।। स्थावर तिर्यञ्च ___ इस संसारमें पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वायुकायिक और अग्निकायिक स्थावरजीव' असंख्यात हैं, उन्हें लौकिक गणनाके उपायों द्वारा गिना नहीं जा सकता है किन्तु वनस्पतिकायिक जीवोंका परिमाण अनन्त हैं। पृथ्वी आदि पाँचों शरीरोंके धारक जीवोंके सिर्फ एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है । फलतः छुये जानेपर या छूकर ही वे सुख और दुःखका अनुभव करते हैं ।।५।। त्रस तिर्यञ्च । नदी आदि स्थलोंपर पाये जानेवाले शंख, घंघे, सीप, कुक्षि, केंचआ आदि कृमि इत्यादि प्रकारके प्राणियोंके स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ होती हैं अतएव वे स्पर्श और रस इन दो विषयोंको ही भोगते हैं । चींटी, खटमल, विच्छू आदिके वर्गके जीवोंके स्पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ होते हैं। ये स्पर्श, रस और गन्धका अनुभव करते हैं ॥ ६॥ पतंग, भ्रमर, मधुमक्खो ततैया आदिकी जातिके जीवोंके स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु ये चार इन्द्रियाँ होती हैं। ये स्पर्श रस, गन्ध और रूपका साक्षात्कार करती हैं। हिरण, साँप, अण्डोंसे जन्म लेनेवाले पक्षी तथा जन्तु, जलमें उत्पन्न हुए १. जा जाब चल नहा सकत । २. जा चल ते-फिरते हैं, पृथ्वो, अप, वायु, अग्नि तथा वनस्पतिके अतिरिक्त प्राणिमात्र । For Privale & Personal Use Only T [१०० REATREATRE Jain Education international www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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