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वरांग
चरितम्
एकेन्द्रियत्वं प्रतिपद्य जीवा नानाविधाश्छेदनभेदनानि । विमर्दनोत्तापनहिंसनानि सवेदनादीन्यवशाः सहन्ते ॥८॥ प्रपिष्यमाणाश्च विदार्यमाणा विशीर्यमाणा विविधप्रकारैः। प्रपोड्यमाना बहशोऽपि जीवा द्वितीन्द्रियाद्या वधमाप्नुवन्ति ॥९॥ ज्वलन्महादीपशिखां प्रविश्य प्रदह्यते नेत्रवशात्पतङ्गः। घ्राणेन्द्रियेष्टान्विषषष्पगन्धानाघ्राय नाशं भ्रमराः प्रयान्ति ॥ १०॥ क्रव्यावगीतध्वनिनावकृष्टा मृगा वराकाः खलु वागुरासु। निपात्य घोरैरुपहन्यमानास्त्यजन्ति सद्यः प्रियजीवितानि ॥ ११॥
माल्याच्या
जन्तु आदिके सजातीय जीवोंके पाँचों इन्द्रियाँ होती हैं। तथा वे पूर्वोक्त चारों विषयोंके सिवा शब्दका भी साक्षात्कार !! करते हैं।॥७॥
स्थावर दुःख जो जीव एकेन्द्रियत्वको प्राप्त करके एकेन्द्रिययुक्त जीवोंके वर्गोंमें उत्पन्न होते हैं, विचारे अपनी रक्षा करनेमें भो असमर्थ हो जाते हैं । वे नाना तरहसे छेदे जाते हैं, उनको विविध प्रकारसे भेदा जाता है, वे पीसे जाते हैं और जलाये जाते हैं, तो भी दारुण वेदनामय यह सब अत्याचार उन्हें सहने हो पड़ते हैं। दो, तीन आदि इन्द्रियधारी जीवोंकी भी पूरे जोरसे पिसाई होती है।॥८॥
सपर्याय दुःख वे भी तरह-तरहसे काटे जाते हैं, उनको भी विविध प्रकारसे सड़ाया गलाया जाता है तथा उन्हें उत्कटसे उत्कट । पीड़ा देनेके ढंग भी एक दो नहीं बहुत अधिक हैं। यह जीव भी इन सब दु-खोंको भरते हुए तरह-तरहसे मौतके मुख में जा पड़ते हैं ।। ९॥
नेत्रेन्द्रियका कुपरिणाम नासिका कुपरिणाम चार इन्द्रियधारी पतंग नेत्र इन्द्रियका विषय अधिक प्रिय होनेके कारण जोरोंसे जलते हुए बड़े दीपकको शिखापर दौड़ता है और उसमें घुसकर बिल्कुल भस्म हो जाता है चार इन्द्रियधारी जीवोंमें भोरेको घ्राण इन्द्रिय प्रधान होती है। इस इन्द्रियको प्रिय फूलोंपर विचरता हुआ वह विषले फूलों को भी सूघता है और इस प्रकार अपने नाशके साधनोंको जुटाता है ।। १० ।।
कर्णेन्द्रियका कुफल पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च हिरणकी कर्ण इन्द्रिय प्रबल होती है। वे मांसाहारी व्याघ्र, (शिकारी ) आदिके मधुर गीतकी । ध्वनिपर आकृष्ट होकर अपने आपको उसके जालके फंदोंमें डाल देते हैं। उसके बाद निर्दय बहेलियोंके द्वारा मारे जानेपर विचारे
च्यामाचरन्ज न
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