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द्वादशः
चरितम्
तत्तीरफुल्लद्रुममञ्जरीनां गन्धैः सुगन्धीकृतचारुतोयम् । मत्तभ्रमत्षट्पदगीतरम्यं मनोहरं शीतलमाससाद ।। ७३ ॥ हंसामना बालनृपं समीक्ष्य कुलाङ्गनावद्ददृशुस्तिरस्थाः । अन्तर्दधुः काश्चन काश्चिदस्थर्मष्टं जगुर्वेश्यवधवदन्या:२ ॥ ७४ ।। आसाद्य तत्तीरमुखप्रदेशं प्रक्षाल्य धीमानथ पाणिपादम् । पिपासितः क्षामनयाम्बु शीतं पपौ पलाशेन पयोरुहस्य ॥ ७५ ॥ सुवर्णरूप्योत्तमभाजनेषु त्रिजातकर्पूरकवासिताम्भः । प्रियाकराग्रोपहृतं मनोज्ञं यः पीतवानराजगृहे यथेष्टम् ॥ ७६ ।।
सर्गः
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समाचाRPANERUTISMURARISHAINEERPUR
कठिन था, मन्द-मन्द बहती हवाके झोकोंसे उसका पानी हिलता था और सुन्दर लहरें एकके बाद एक करके उठती आती थी, पूर्ण विकसित पुण्डरीक ( श्वेत कमल) तथा उत्पलों ( नीले कमलों ) से वह पटा हुआ था पुष्पों के पराग आदि को पीकर मस्त हुए हंस आदि पक्षियों की मधुर कूज से वह गूज रहा था ।। ७२ ।।
रोटी के लिए आकुल राजा किनारे पर खड़े वृक्ष फल रहे थे उनकी मंजरियों की सुगन्धि से पूरे जलाशयका मधुर जल सुगन्धित हो गया था, तथा। पुष्पोंपर इधर उधर उड़नेवाले भौरे फूलोंका मधु पीकर मत्त हो गये थे और गुजार कर रहे थे, जिसके कारण उसकी सुन्दरता और भी बढ़ गयी थी ऐसे शीतल सरोवर पहुँचकर वरांगने सांस लिया। ७३ ।।।
उस जलाशय में किलोलें करनेवाली सुन्दरी हंसियो के सामने जब राजकुमार पहुँचा था, तो उनमें से कुछ हंसियों ने लजीली कुलीन बहुओं के समान, आंख बचाकर तिरछी नजर से उसे देखा था, दूसरी नव बधुओं के समान फूलों में छिप गयीं थीं, अन्य ज्योंकी त्यों बैठी रही थीं तथा कुछ ऐसी भी थीं जिन्होंने वेश्याओं के समान मधुर-मधुर बोलना प्रारम्भ कर दिया । था।। ७४ ॥
विवेकी राजकुमार ज्यों ही उस सुन्दर जलाशय के किनारे पहुंचे त्यों ही सबसे पहिले उन्होंने अपने धल धूसर हाथ पैरों में को धोया। वहाँ अत्यन्त प्यासे और दुर्बल थे इसलिए उन्होंने कमल के पत्ते के दोने से धीरे-धीरे शीतल जलको पिया था ।।७।।
रंक राजा एक समय था जब यही राजकुमार अपने राजमहलोंमें त्रिजात (सुगन्धि, शीतल त्रिफली आदि ) कपूर आदि मिलानेसे सुगन्धित, सोने या चाँदीके निर्मल रमणीय पात्रोंमें भरे गये तथा अप्सराओंके समान युवती प्राणप्यारियोंके द्वारा दिये । गये प्यासवर्द्धक जलको जितना चाहता था उतना पीता था। ७६ ।। १..क गुशुस्त्विरस्थाः, [ दुद्रुवुस्तिरस्स्थाः , स्तटस्थाः ]। २. क वश्य । ३. क पिपासितक्षाम° ।
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