________________
बराङ्ग चरितम्
Like The Tikk
गजेश्वरस्त्वं मनुजेश्वरोऽहं त्रातुं भवानेव हि मामतोऽर्हः । आपद्गतानां हि सतां सहाया भवन्ति लोके महतां महान्तः ॥ ६८ ॥ पूर्वं महीपालसुतस्त्वभूवन्तीत' सुतोऽहं तव नागवर्यं । तवोपचारप्रतिकारता हि न शक्यते जन्मशतेन कर्तुम् ॥ ६९ ॥ प्रियाभिराभिर्वर हस्तिनोभिर्वनं चिरं पालय वीतशोकः । इतीभमित्थं वचनैः प्रशस्य गते करीन्द्रेऽवततार वृक्षात् ॥ ७० ॥ क्षुधाभिभूतस्तृषया परीतः पानीयमिच्छंस्त्वरितं तरस्वी । यथार गजेन्द्रानुविर्मादतेन व्रजन्स रोऽपश्यददूरदेशे ॥ ७१ ॥ सरः प्रसन्नोदकमत्यगाधं मन्दानिलोत्कम्पितरङ्गमालम् ।
सच्छन्न फुल्लोत्पल पुण्डरीकं
मदप्रलापाण्डज मृष्टनादम् ॥ ७२ ॥
तुम हाथियोंके अधिपति हो और मैं भी मनुष्यों का शासक हूँ अतएव तुम्हारा ऐसा जीव ही मेरी सहायता कर सकता है, किसी अन्य शक्तिशालोके वशकी यह बात नहीं है। संसार का यहो नियम है कि जब साधुचरित महात्मा लोग विपत्ति में पड़ जाते हैं तो उनके समकक्ष महापुरुष ही उन्हें सहारा देते हैं ।। ६८ ।।
मैं जन्म से ही राजपुत्र था और विमाताके षड्यन्त्र से दुष्ट घोड़े पर सवारी करने से यहाँ इस दुःस्थितिमें पड़ गया था । हे गजराज ! तुमने मेरा उद्धार किया है। आपकी इस कृति (रक्षा) का प्रत्युपकार (बदला) में संकड़ों जन्मों में नहीं कर (चुका) सकता हूँ ॥ ६९ ॥
श्रेष्ठ हथियाँ जो कि तुम्हारी प्रियतमा हैं इनके साथ चिरकाल तक जंगलकी रक्षा करो, तुम्हें कभी किसी प्रकारके शोक संतप्त न होना पड़े, इत्यादि प्रिय बचन कहकर उसने हाथी की प्रशंसा की थी। तथा जब हाथी भी जंगलमें दूसरी ओर चला गया था तब वह शान्तिसे वृक्षपर से उतर आया था ।। ७० ।।
भूखने उसकी दुरवस्था कर डाली थी, प्यासने भखसे भी अधिक व्याकुल कर रखा था अतएव वह वेगशील तथा पुरुषार्थी युवक तुरन्त ही पानीकी खोज में निकल पड़ा था । श्रेष्ठ हाथियों के दलके पैरोंसे घास, लता, पृथ्वी आदि कुचल जानेसे जो मार्ग बन गया था उसे पकड़ कर चलते गजराजने थोड़ी दूरपर एक तालाब देखा ।। ७१ ।।
तब वह बढ़कर उस मनोहर पर अत्यन्त गड्डे तालाब पहुँचा था, जिसका पानी अत्यन्त निर्मल था, उसकी थाह पाना
१. [ सुतस्त्वभूमित: ] । २. [ पथा ] ।
Jain Education International
३. [ संछन्न° ] ।
For Private Personal Use Only
द्वादश: सर्गः
[२१०]
www.jainelibrary.org