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बराङ्ग चरितम्
आकर्ण्य नादं सहसा निवृत्तः क्रोधोद्धृतः' सोच्छ्रितकर्णपुच्छः । विशेषसंप्रश्नुतिदानलेखो' गर्जन्गजो वायुरिवाजगाम ॥ ६४ ॥ गजं तमायान्तमुदग्रकोपाव्याघ्रः समुत्प्लुत्य तदंश कुम्भे। बष्टोऽतिरुष्टः स च दन्तकोटया जघान शार्दूलमधो निहत्य ॥ ६५ ॥ स तस्य संप्रेक्ष्य गजेश्वरस्य जयं महान्तं रिपुमर्दनस्य । अन्तर्गतप्रीतिमनाः कृतज्ञो युवेश्वरो वाक्यमिदं जगाद ॥६६॥ ममाशरण्यस्य बने स्थितस्य व्याघ्रातिनिर्भर्त्सनभोषितस्य । व्यपेतमित्रार्थकलत्रकस्य त्वयेभ दत्ता प्रियजीविताशा ॥ ६७॥
द्वादशः सर्गः
मनुष्य की गर्जना सुनकर हाथी एकदम लौट पड़ा, क्रोधमें चूर होनेके कारण उसके कान और पूंछ खड़े हो गये थे उसके गण्डस्थलों से मदजल की विशेष मोटो धार बह रहो थो, ऐसा वह उद्दण्ड हाथो चिंघाड़ता हुआ वायुके वेगसे उस स्थल पर आ टूटा ।। ६४ ॥
हाथी को लपकके आता देखकर सिंहको क्रोधाग्नि 'भभक उठी थी फलतः उसने उछलकर सिंहके गण्डस्थल पर पंजा मारा । इस प्रकार काटे जानेपर हाथीका क्रोध अन्तिम सीमा को लांघ गया था अतएव उसने सूडसे नीचे गिराकर दांत की नोकसे उसे मार डाला था । ६५ ।।
सिंह ऐसे शत्रु को चकनाचूर कर देनेवाले उस हाथियोंके राजाको उस महान् विजयको देखकर विपद्ग्रस्त राजकुमार का मन और हृदय प्रेमसे भर आये थे। युवराजका कृतज्ञताका भाव इतना उमड़ आया था कि सहसा उसके मुखसे यह बचन निकल पड़े थे ।। ६६ ॥
कृतज्ञतानुभवन हे गजराज ! मैं इस वनमें ऐसी परिस्थितिमें पड़ गया है कि यहाँ मुझे कोई शरण नहीं है, भूखा बाघ क्रोधसे बारबार गरजकर मुझे धमका रहा था जिससे मैं अत्यन्त डर गया था, न मेरे पास धन है न मित्र ही हैं जो सहायता करें और न स्त्री ही है जो दुःखमें भाग बटाती ऐसे असहाय मुझमें तुमने ही परमप्रिय जीवनकी आशाका संचार किया है ॥ ६७ ।।
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[२०९]
२. क संप्रश्रुति, [ संप्रति ]।
३. क वाजिरिवाजगाम ।
४. म तदंशु, [ तदेस ] ।
१. [ क्रोधोद्धतः]। ५. क दष्टेतिरुष्टः।
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