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बराङ्ग चरितम्
आहत्य पुच्छेन तलं धराया दृष्ट्वोर्द्धदृस्टिविटपे निविष्टम् । उद्वेजयन्भीमवपुस्तदानीं शार्दूलपोतः प्रसभं जगर्ज ।। ५९ ।। शार्दूलनिर्भत्सन विस्मिताक्षः शाखान्तरे भूमिपतिनिविश्य । निरीक्षमाणः स च तद्विकारान् कृच्छ्रेण रात्रि गमयां वभूव ॥ ६० ॥ वियोगचिन्ताकलुषीकृतस्य परिश्रमम्लानमुखाम्बुजस्य । क्षुत्तर्षतान्तस्य' सवुः स्थितस्य एका निशानेकनिशेव सासीत् ।। ६१ ।। न चामिषा सा प्रतिबद्धचित्तो निर्गन्तुमिच्छन्निपतिष्यतीति । शार्ङ्गं लयान प्रतिलिप्समानो राजपुत्रोऽप्यवरोहमैच्छत् ॥ ६२ ॥ मत्तमहाकरोन्द्रं करेणुभिः सार्धमभिप्रयातम् ।
इत्थंगते
विलोक्य दूरान्नृपतिर्ननाद व्याघ्र गजेन्द्र ेण विमर्दयिष्यन् ॥ ६३ ॥
आपत्ति में आपत्ति
उसी समय सिंहके शावकने क्रोधसे भूमिपर अपनी पूंछ मारकर ऊपर नजर फेंकी। तथा राजकुमार को वृक्ष को शाखा पर बैठा देखकर उसने अपने भयंकर शरीरको फुलाकर उसी समय बड़े जोरसे गर्जना की थी ।। ५९ ।।
सिंह की धमकी युक्त गर्जनाको सुनकर राजकुमारी की आँखें भय तथा आश्चर्य से फैल गयी थीं। उस शाखातक उचक सकनेका कुछ भय था इसलिए वह दूसरो शाखा पर जा बैठा और वहोंसे सिंह को क्रोध, लपकने, आदि कुचेष्टाओं आदि समस्त विकारों को देखते हुए उसने किसी तरह अत्यन्त कष्ट एवं चिन्ता में रात काटी थी ॥ ६० ॥
१. मक्षुततार्तस्व ।
वियोग शोक और भविष्यको चिन्ताओंके कारण वह उदास था, दिन रातके परिश्रमके कारण उसका सदा विकसित मुखकमल भी म्लान हो गया था, भूख और प्याससे व्याकुल था इतना ही नहीं वह अत्यन्त विषम परिस्थितियों में पड़ गया था और दुखद स्थानपर बैठा था फलतः उस एक रातको काटनेमें हो उसे ऐसा लगा था मानो कई रातें बीत गयीं हों ॥ ६१ ॥ उस सिंहका चित्त मांसकी आशा में इतना लीन हो गया था कि 'अब तब गिरेगा' यहीं सोचने के कारण वह वृक्ष के नीचे से हिलना भी नहीं चाहता था, तथा युवक राजा भी हृदयसे यही चाहता था कि वह सिंह चला जाय इसी आशा में वह नीचे उतरनेका विचार भी न करता था ।। ६२ ।
जब यह जटिल परिस्थिति हो गयी थी तो उसी समय राजाने दूरसे देखा कि एक मदोन्मत्त जंगली हाथी हथिनीके साथ चला जा रहा है, 'उसने सोचा क्यों न सिंहको मत्त हाथीसे कुचलवाया जाय' इसी इक्छासे उसने जोर से हाथी को ललकारा था ।। ६३ ।।
४. क निमर्दयिष्यं, [ निमन्त्रयिष्यन् ] ।
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२. [ चामिषाशाप्रति° ] ।
३. [ निर्गन्तुमैच्छत् ]
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द्वादश:
सर्ग:
[२०८]
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