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________________ त्रयोविंशः वराङ्ग चरितम् सर्गः मदभेरीरवमर्दलास्य' मन्द्रो ध्वनिस्तत्र नणां श्रवस्सु । विवर्धमानस्य हि सर्वसन्ध्यो महार्णवस्येव रवो बभूव ।। ४८ ॥ सिता बलाकाश्रयमादधानाः काश्चिच्च सन्ध्यारुणिताम्बराभाः। नीलाश्च पीता हरिताश्च काश्चिदशार्धवर्णा विबभुः पताकाः ॥ ४९ ॥ पराय॑नानामणिमिश्रितानि समुल्लसत्काञ्चनदामकानि । विलम्बिमुक्तातरलाञ्चितानि वीथोष रेजुर्वरतोरणानि ॥ ५० ॥ तीर्थाम्बपूर्णाः स्वविभाकरालाः कण्ठावसक्तोज्ज्वलचारुमालाः। पद्मापिधानास्तपनीयकुम्भा रेजुः प्रतिद्वारमुदग्धरूपाः ॥ ५१ ॥ स्वभावनिर्वतितभूतियुक्तं जिनेन्द्रपूजाद्विगुणीकृतार्थम् । ततस्तदानर्तपुरं क्षणेन वस्वोकसारश्रियमद्वभार ।। ५२॥ रामचUAGERRARAIGARH मदंग, भेरी आदि बाजोंकी जोरकी आवाज दर्शनाथियोंके कानोंसे टकरा रहो थी। इन सबमें मर्दल ( बड़े नगाड़े) का मोटी तथा दरतक सुनायो देनेवाली ध्वनि प्रधान थी। सब बाजोंको मिली हुई ध्वनिको सुनकर लोगोंके मनमें अमावस्या तथा पूर्णिमाके दिन आये ज्वार भाटेके कारण उमड़ते हुए कुपित समुद्रके रोरकी आशंका उत्पन्न हो जाती थी॥ ४८॥ कुछ पताकाओंके कपड़ेकी शोभा सारसोंकी पंक्तिके समान अत्यन्त धवल थी, कितनी ही पताकाओंके लहराते हुए वस्त्रको देखकर सन्ध्याके रंगसे रक्त मेघोंका धोखा हो जाता था। अन्य अनेक पताकाएँ नीले, पीले तथा हरे रंगोंकी थीं ॥ ४९॥ कुछ पंचरंगी भी थी जिनकी शोभा देखते ही बनती थी। गली, गली में तथा उनके मोड़ोंपर सुन्दर तोरण बनाये गये 1 थे। उनपर चमचमाते हुए निर्मल सोनेकी बन्दनवारें और मालाएँ लटक रही थीं, जिनके बीच, बीचमें बहुमूल्य मणिमुक्ता पिरोये गये थे। मोतियोंको लड़ियाँ भी तोरणोंमें लटक रही थीं जो कि हवाके झोकोंसे चंचल होनेपर अद्भुत छटा उपस्थित कर देती थीं ॥५०॥ नगरके प्रत्येक गृहके द्वारपर सोनेके बड़े-बड़े घड़े कलश, तीर्थोंका पानी भर कर रखे गये थे। उन कलशोंकी छटा बड़ी प्रखर और प्रकाशमय थी, उनके गले में सुन्दर सुगन्धित मालाएँ लपटी हुई थी तथा वे सबके सब विकसित कमलोसे ढके हुए थे। । इस सजावटके कारण उनकी शोभा अति अधिक बढ़ गयी थी। ५१ ।। सम्राट वरांगके द्वारा स्थापित आनतपूरका निवेश प्रारम्भमें ही ऐसी सुन्दर वास्तु शैलीके अनुसार हुआ था कि वह सहज ही सुसज्जित नगरोंसे अधिक सुन्दर दिखता था, उसपर भी जब जिनेन्द्रमहकी तैयारी हुई तो उसको शोभा दुगुनी हो गयी १.[मर्दलस्य ]। २. [ प्रतिद्वारमुदन]। ३. म स्वभार। ४. [वस्वेक ]। माया सामानामन्यमान [४५१] Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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