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त्रयोविंशः
वराङ्ग चरितम्
सर्गः
मृगेन्द्रपद्मोक्षरथाङ्गवस्त्राः सुपर्णनागेन्द्रमहेन्द्रकेतून् । ऊढ़वा' चलत्कुण्डलहारयष्टीन् भ्राजिष्णुदेहाः पुरुषाः प्रजग्मुः ॥ ४४ ॥ स स्नापकः स्नातविलिप्तगात्रो यक्षः सदक्षः स्नपने प्रवीणः । भनारकं हेममयं विचित्रं वहन्बभौ सूर्यमिवोदयाद्रिः॥४५॥ पुष्पाणि सत्केसरधूसराणि गन्धावबद्धभ्रमरावलीभिः । सिक्तानि सच्चन्दनतोयगन्धैर्ययुः किरन्तः पुरतस्तथान्ये ॥४६॥ नटाश्च भण्डाः खल मागधाश्च विदूषकाश्चापि विडम्बकाश्च । विचित्रवेषाः परिहासयन्तः पूजाजनं तं परितः प्रशंसुः ॥ ४७॥
लेकर इन्द्रकूट जिनालय पहुँचा रही थीं ।। ४३ ।।
चंचल कुंडल तथा हारोंको पहिने हुए स्वस्थ, तेजस्वी तथा बलिष्ठ शरीरधारो पुरुष भवनवासी देवोंके सुपर्णकुमार, नागकुमार तथा कल्पवासियोंके इन्द्रोंके विशाल तथा ललित केतुओंको लिए हुए जिनालयको दिशामें जा रहे थे। इन ध्वजाओंके ऊपर ( मृगोंके इन्द्र ) सिंह, कमल, वृषभ, चक्र आदिको सुन्दर तथा सजीव आकृतियाँ बनी हुई थीं ।। ४४ ।।।
जिस सज्जनको श्री जिनेन्द्रदेवके स्नान में प्रधानका कार्य करना था, उसने उबटन आदि लगाकर स्वयं विधिपूर्वक स्नान किया था, उसकी सब इन्द्रियाँ पूर्ण स्वस्थ थों तथा वह यक्षदेवोंके समान ही स्थापन तथा कलशाभिषेकमें अत्यन्त कुशल था। अतएव जिस समय वह सोनेको विशाल तथा विचित्र झारोको लेकर चला था तब ऐसा लगता था कि उदयाचल पर्वत ही सूर्यके बिम्बको लेकर चल रहा है ।। ४५ ।।
इनके आगे कितने ही लोग फूलोंको बिखेरते चल रहे थे। श्रेष्ठ सुन्दर परागरूपी धूलसे वे फल धूसरित हो रहे थे। । उनकी सुगन्धसे आकृष्ट होकर भौंरोंके झुण्डके झुण्ड उनपर टूट रहे थे । तथा वे सब फूल मुरझानेसे बचानेके लिए उत्तम चन्दन मिश्रित जलसे सींचे गये थे ।। ४६ ॥
जलयात्राके विविध रूप नट लोग, भीड़ लोग, तथा अनेक जातियोंके भोजक, परिहासकुशल विदूषक तथा विडम्बकों (नकल उतारनेवाले ) ने 4
[४५०] अपना वेशभूषा ही ऐसा बना रखा था कि उसे देखकर तथा उनकी बातोंको सूनकर हो हंसी आती थी। इस विधि से अद्भुत शैली से लोगोंका मनोरंजन करते हुए सब दृष्टियोसे जिन पूजाको प्रशंसा करते चले जा रहे थे ।। ४७ ।। १. [ °वक्त्राः ]। २. म ऊर्वा । ३. म सस्नापकाः। ४. [ पूजार्चनं ] । For Private & Personal Use Only
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