SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 485
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वराङ्ग त्रयोविंशः सर्गः चरितम् चलत्पताका निपतबलाका जनोदका चामलहंसमाला । वितानकोमिलिफेनराशिः पजामहापुण्यनदी ससार ॥ ५३॥ नरेन्द्रगेहाज्जिनदेवगेहं तदोत्तद्धिश्च शनैः प्रयान्ती। पूजोद्गतानां विरराज पङ्क्तिः तारागणानां नभसीव पङिक्तः ॥ ५४॥ द्विषत्स्वसूयां प्रमदास्वनङ्गं घनानि दीनेष मुदं निजेषु । 'ददन्कटान्तभ्रमरप्रतानं राजाधिरूढः करिणं जगाम ॥ ५५ ॥ पौराङ्गनाभिः कृतभूषणाभिर्वद्धनरैः पोष्यजनैः परीताः। नरेन्द्रपत्नीशिबिकाः प्रयाता गन्त प्रवृत्ता इव सौधमालाः ॥५६॥ थी। उसके विभव और शोभाको देखकर ऐसा लगता था कि उसने सम्पत्तिके एकमात्र अधिपति ( कुबेर ) की लक्ष्मीके सारको ही प्राप्त कर लिया था। ५२ ॥ जलयात्रा-सरिता रूपक पूजारूपी पवित्र नदी ही उस नगरके मार्गपर उमड़ती चली जा रही थी। मन्दिरको ओर जाते हुए लोगोंकी भीड़ उस नदीकी जलराशि थी, ऊपर उठाये गये धवल छत्र ही उसको लहरें थे, पूजन अभिषेक सामग्रो फेन थी, लहराती हुई ऊँचीऊँची पताकाओंने उड़ कर झपट्टा मारते हुए सारसोंके झंडका स्थान ग्रहण किया था तथा दुरते हुए चंचल चमर ऐसे प्रतीत होते थे मानो हंसोंकी पंक्तियाँ ही उड़ रही हैं ।। ५३ ।। पूजा करने और देखनेके लिए सम्राटके राजभवनसे निकल कर इन्द्रकूट जिनालय तक पहुंची हुई धार्मिक श्रावकोंकी विभव और कान्तिसे शोभायमान पंक्ति धीरे-धीरे चलती हुई ऐसी लगती थी, जैसी कि निर्मल आकाशमें चमकते हुए असंख्य तारोंकी पंक्ति शोभित होती है ।। ५४ ॥ सम्राटके चढ़नेके लिए लाये गये हाथोके गण्डस्थलसे मदजल बह रहा था अतएव उन्हें ( गण्डस्थलोंको) भौरोंके झुंडने घेर रखा था। ऐसे हाथोपर जब श्री वरांगराज जिनालयके लिए निकले थे तब उनके आन्तरिक हर्षकी सीमा न थी। उस समय उन्होंने दीनोंको धन लुटाया था, अपने सौन्दर्यके कारण यौवन मदसे उन्मत्त नायिकाओंमें उत्तेजना उत्पन्न की थी तथा युद्धवीर आदि रूपोंके साथ अपने धर्मवीर रूपोंको भी प्रकट करके शत्रुओंके मनमें असूयाका संचार किया था ।। ५५ ।। धर्म महोत्सवके अनुकूल वेशभूषासे सुसज्जित नगरको कुलीन देवियोंके साथ-साथ सम्राटकी पत्नियोंकी पालकियाँ निकलना प्रारम्भ हुई थीं। जिन्हें देख कर चलते-फिरते गहोंकी पंक्तिका भ्रम हो जाता था। इन पालकियोंके आगे पीछे तथा . [ जनोदकार्चा]। २. क दधन् । [४५२] Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy