SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 486
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वराङ्ग चरितम् 1 एवं प्रभूत्या नरदेवपरन्यो नृपेण संप्राप्य जिनेन्द्र गेहम् । प्रदक्षिणीकृत्य बलि प्रविश्य परीत्य तस्थुह्यं भिषेकशालाम् ॥ ५७ ॥ सुगन्धिगन्धोदकधौतपाणिस्तुरुष्कसंधूपितधूपपाणि: पुष्पाक्षत क्षेपणदक्षपाणि: मृदङ्गगम्भीरनिनादनादं व्यालोलसच्चामरफेनमालं पूजासरस्तच्छन कैर्जगाहे ॥ ५९ ॥ आनीय लोकत्रयनाथबिम्बमास्थाय मौनव्रतमासमाप्तम् । आस्थाप्य रत्नाञ्चितपीठिकायां पूजाविधौ यत्नपरो बभूव ॥ ६० ॥ स स्नापको दर्भपवित्रपाणिः ॥ ५८ ॥ लसत्पताको रुतरङ्गरङ्गम् 1 दोनों पक्षोंमें वृद्ध पुरुष तथा अन्तःपुरमें पले-पुषे अन्य परिचारकोंके झुंड चले जा रहे थे ।। ५६ । पुजारी राजा पूर्वोक्त साज-सज्जा तथा वैभवके साथ राजपत्नियाँ सम्राटके पीछे-पोछे ही इन्द्रकूट जिनालयमें जा पहुँची थीं। वहाँ पहुँचते ही उतर कर उन सबने पहले तीन प्रदक्षिणाएं की थीं, फिर प्रवेश करके अर्घ्यं आदि सामग्री चढ़ा कर वे अभिषेकशाली की ओर चली गयी थीं । वहाँपर वेदीके चारों ओर वृत्ताकार बनाकर वे बैठ गयी थीं ॥ ५७ ॥ अभिषेक शाला में स्नपनाचार्य पहिलेसे ही सुगन्धित चन्दन मिश्रित जलसे हाथ धोये हुए, उचित मुहूर्तकी प्रतीक्षा कर रहे थे । तुखार (पुरुष्क) देशसे लायी गयी धूपको वैसान्दुर में जलाया जा रहा था उससे निकलते हुए धुएँ में डालकर उन्होंने अपने हाथों सुखा लिया था। उनके हाथ पुष्प आदि सामग्रीको विधिपूर्वक यथास्थान डालनेमें अत्यन्त अभ्यस्त थे तथा पवित्र कुशाको हाथ में लिये ही वे खड़े थे ।। ५८ ।। मुहूर्त प्रतीक्षा अभिषेकका समय निकट होनेके कारण मृदंग आदि बाजे लगातार बज रहे थे, जिनसे मन्द्र और गम्भीर नाद हो रहा था, लहराती हुई ऊँची पताकाएँ लहरोंके सदृश महोहर थीं तथा हर दिशामें दुरते हुए चमर स्वच्छ सुन्दर फेनपुंजके समान दिखते एव अभिषेक गृह पूजासर (तालाब) समान लगता था ।। ५९ ।। सम्राटके पहुँचते ही स्नापकाचार्य धीरेसे इस तालाब में उतर गये थे अर्थात् उन्होंने कार्य प्रारम्भ कर दिया था। वह तुरन्त ही जाकर तीनों लोकोंके साथ जिनेन्द्र प्रभुकी मूर्तिको ले आये थे । उसको रत्नोंसे जड़े गये महार्घं आसनपर विराजमान करके उन्होंने उपक्रमकको समाप्ति पर्यन्त मौनव्रत धारण कर लिया था । तथा मन, वचन तथा काय तीनोंको लगाकर प्रयत्नपूर्वक पूजा प्रारम्भ कर दो थी ॥ ६० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only त्रयोविंशः सर्गः [ ५३ ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy