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बराज
पारतम्
प्रवरहीतलस्थितयोषितो विलसितामलसन्नयनावलीः । सललितं स हरं' मुदितः शनैरुपससार गृहं सर नरोत्तमः ॥७॥ उदितकाञ्चनतोरणगोपुरं रुचिमदुच्छ्रितकूटतटोत्कटम् ।
विंशतितमः नृपगृहं प्रविशन्विबभौ नृपो जलदगर्भमयेन्दुरिवामलः ॥८॥
सर्ग: प्रमुदिता च वराङ्गवराङ्गना सकलचन्द्रमुखी कुलनन्दिनी। प्रहतमङ्गलतूर्यरवैः सह प्रविशति स्म मनोरमया पुरम् ॥ ८९ ॥ अथ नरपतिरन्तर्गेहलक्ष्मीमिवैकां सविनयमुपसद्य प्रान्जलिर्जातहर्षः।
विकचकमलभासः सन्ननाम स्वसारः प्रणतजनविभत्या पादयोः पादयोः सः॥९॥ नगरमें ऊँचे-ऊँचे विशाल-महलोंकी छतों पर कुलीन बधुएँ बैठी थीं उनके निर्विकार सुन्दर चंचल नेत्रोंके समूहको अपनी लीला व अन्य गुणोंके द्वारा धीरे-धीरे अपनी ओर आकृष्ट करता हुआ वह पुण्यात्मा पुरुष धीरे-धीरे अपने राजमहलकी ओर चला जा रहा था ।। ८७ ।।
उत्तमपुरके राजमहलके गोपुर अत्यन्त उन्नत स्वर्णमय द्वार थे, उनके ऊपर बने हुए आकाशचुम्बी शिखरोंके कलशोंकी कान्ति तथा धुति अद्भुत थी। ऐसे विशाल राजप्रासादमें प्रवेश करते हुए कुमार वरांगकी शोभा मेघोंकी घटामें घुसते हुए निर्मल पूर्णचन्द्रकी कान्तिकी समानता करती थी ॥ ८८॥
राजभवन प्रवेश युवराज वरांगकी अनुपमा आदि पत्नियां, कुलीन कन्याएँ तथा बधुएं थीं। अतएव ज्योंहो उन चन्द्रमुखियोंने जोरोंसे । बजते हुए मांगलिक बाजोंके शोरके बीचमें मनोरमा के साथ अपने प्राणपतिको प्रवेश करते देखा, त्योंही वे सब कुलनन्दनियां
स्वयं आनन्दविभोर हो उठी थीं ।। ८९ ।। HER. हर्षातिरेकके कारण उन्दत्त युवराज वरांग हाथ जोड़े हुए विनयपूर्वक माताके सामने जा पहुंचे थे । और उनके चरणोंमें 1
झुक गये थे । वह माता भी क्या थी ? उत्तमपुरके राजवंशकी साक्षात् गृहलक्ष्मी थी । बहिनोंने जब भाईको देखा तो उनके मुख विकसित कमलोंके समान विकसित हो उठे थे, युवराज वरांग अत्यन्त विनम्र पुरुषकी भांति प्रत्येक बहिनके पास गये थे और उनके चरण छूकर स्नेह प्रकट किया था ।। ९०॥
१. [ स हरन् ।।
२. [ गृहं च ।
१. म लक्ष्मीमिवैतां ।
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