________________
बराङ्ग चरितम्
विंशतितमः सर्गः
अवनिराज्यधुरं भजतामिमां प्रतिगृहाण न चान्यविहोच्यताम् । इति जगर्गरवः सदसि स्थितं वरतनु मुदिता' गुणभाजनम् ॥ ८३ ॥ स च गुरुप्रतिकूलभयादतः किमपि चात्मगतं हृदि चिन्तयन् । न च शशाक निवारयितु बलान्नपतिता क्षितिपैः समधीयत ॥ ८४ ॥ रजतरुक्मघटेरभिषेचितः प्रवरपट्टविभूषित मस्तकः। प्रचलदुज्ज्वलचामरवीजितः प्रविरराज शशीव गताम्बुदः ॥ ८५ ॥ समदवारणमूनि प्रतिष्ठितो नपतिभिर्बहुभिः परिवारितः। प्रचलदुच्छ्रितकेतुलसद्धवजः पुरवरं प्रविवेश महेन्द्रवत् ॥८६॥
जिस समय वह राजसभामें पिताके पास बैठे थे उस समय पिता, मामा, महामंत्री आदि गुरुजनोंने आग्रह पूर्वक कहा था 'हे वत्स ! इस विशाल राज्यके भरणपोषणके भारको जिसे अबतक वृद्ध महाराज ढोते आये हैं अब तुम धारण करो, चुपचाप स्वीकार कर लो और कुछ मत कहो ।। ८३ ॥
वह अपने मनमें कुछ और ही सोचता था किन्तु उसे इसीलिए नहीं कह सकता था कि कहीं पिता आदि पूज्य पुरुष । उसे विपरीत वचन न समझ लें। अतएव वह उन्हें अपने निश्चयको कार्यान्वित करनेसे भी नहीं रोक सकता था। फल यह हुआ कि सब राजाओंने मिलकर उसपर नृपत्वके भारको लाद दिया था । ८४ ॥
राज्याभिषेक मेघमालाके फट जाने पर पूर्णचन्द्रकी जो अनुपम कान्ति होती है, युवराज वरांगकी भी उस समय वही शोभा थी। सोने तथा चांदीके तीर्थ जलपूर्ण घटोंके द्वारा उसका राज्याभिषेक हुआ था, वक्षस्थल तथा कटिप्रदेश पर राजपट्ट शोभा दे रहा था, मस्तक पर मुकुट जगमगा रहा था तथा उसके ऊपर निर्मल, धवल तथा चंचल चमर दुर रहे थे ।। ८५ ॥
मदोन्मत्त हाथीके ऊपर आरूढ़ होकर जब वह राजधानोकी ओर चला तो उसके चारों ओर अनेक राजा लोग चल रहे थे, ऊँचे-ऊँचे केतु लहरा रहे थे तथा ध्वजाओंको शोभा भी अनुपम थी । अतएव उसने देवराज इन्द्रके समान उत्तमपुरमें प्रवेश किया था ।। ८६॥
[३९७
मुदितो।
२.
विभूषणभूषितः ।
Jain Education international
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org