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________________ चामाना बराङ्ग चरितम् जोवाश्च केचिन्नरकेषु तीवं केनाप्नुवन्त्यप्रतिमं हि दुःखम् । तिर्यक्ष नानाविधवेदनां वा मनुष्यलोकस्य च कारणं किम् ॥ ४० ॥ सुराधिवासस्य चतुर्विधस्य सौख्यं कथं वाष्टगुणादियुक्तम् । क्लेशक्षयोदभतमनन्तकालनिर्वाणसौख्यं कथयस्व केन ।। ४१ ॥ कर्माणि वा कानि सुखप्रदानि दुःखप्रदानान्यथ कानि नाथ । सुखासुखोन्मिश्रफलानि कानि कर्मान्तक हि च संशयो मे ॥ ४२ ॥ एवं स पष्टो भगवान्यतोन्द्रः श्रीधर्मसेनेन नराधिपेन । हितोपदेशं व्यपदेष्टुकामः प्रारब्धवान्वक्तुमनुग्रहाय ॥ ४३ ॥ तृतीयः सर्गः IPELIPEEL मामबार चाSAAMARRESSETTE और पर्यायोंको साक्षात् जानते हैं, आप क्षायिक आदि समस्त गुणोंके भण्डार हैं सब ही स्वर्गों के इन्द्रों के लिए भी आप परमपूज्य हैं, पाप तो आप से दूर-दूर भागता फिरता है। इसलिए हे गुरुवर मुझे जीवादि नौ पोंको समझाइये ॥ ३९ ॥ गतिकारण जिज्ञासा हे प्रभो ! कुछ जीव किन कारणोंसे नरकोंमें उन भयंकर दुःखोंको भरते हैं, जिनकी तुलना मध्यलोकके दारुण से दारुण दुःखसे भी नहीं की जा सकती है। वे कौनसे कर्म हैं जिनके फलस्वरूप तिर्यंच योनिमें बध, बन्धादि विविध वेदनाएँ सहनी पड़ती हैं ? वे कौन-सी क्रियाएँ हैं जो जीवको मनुष्य गतिमें ले जाती हैं ।। ४० ॥ अणिमा, महिमा आदि आठ गुणोंसे युक्त-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पवासी-चारों प्रकारकी देवगतिके निरन्तराय सुखोंका स्वामी यह जीव क्यों होता है ? तथा वह कौनसी साधना है जो इस आत्माको समस्त कर्मोके नाशसे होनेवाले उस चरम मोक्षसुखको दिलाती है जहाँसे फिर कभी लौटना नहीं होता है ।। ४१ ।। हे आठों कर्मों के काल ? वताइये कौनसे कर्मोके फलस्वरूप सुखप्राप्ति होती है ? वे कर्म कौनसे हैं जिनके परिपाक होनेपर दुःख भरने पड़ते हैं ? तथा वे कोनसी कर्मप्रकृतियाँ हैं जिनका विपाक मिले हुए सुख और दुःख दोनोमय होता हैं ? हे केवली ! मेरे संशयको दूर करिये ।। ४२ ॥ कर्मफल जिज्ञासा __ मनुष्योंके अधिपति श्रीधर्मसेनके द्वारा उक्त प्रकारसे पूछे जाने पर, संसार दुःखोंसे तप्त प्राणियोंको कल्याणमार्गका उपदेश देनेके इच्छुक ऋषियोंके राजा श्रीवरदत्तकेवलीने श्रोताओंपर अनुग्रह करनेके लिए ही निम्न प्रकारसे कहना प्रारम्भ किया था ।। ४३॥ For Private & Personal Use Only ERIचाच्य [५१] www.jainelibrary.org. Jain Education international
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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