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मिच
वराङ्ग चरितम्
तृतीयः
सर्गः
ज्वलत्किरीटः प्रविलम्बिहारो विचित्ररत्नानदघृष्टबाहुः । रराज राजा मुनिपुङ्गवस्य पादौ पतन् भानुरिवोदयस्य ॥ ३५॥ आपृच्छय भूपः · कुशलं यतीनामविघ्नतां ज्ञानतपोव्रतेषु । स्वनामगोत्रं चरणं निवेद्य स्तोत्रैश्च मन्त्रविविधैः प्रणुत्य ॥ ३६॥ शेषांश्च सर्वान्मुनिपुङ्गवांस्तांस्त्रिभिविशुद्धः क्रमशोऽभिवन्द्य । एत्यादरात्केवलिपादमूलं सुखं निषधेममपच्छदर्थम् ॥ ३७॥ सर्वप्रजाभ्यो ह्यभयप्रदाता सर्वप्रजानां शरणं गतिश्च । सर्वप्रजानां हितदेशकस्त्वं धर्मामृतं मे दिश वीतमोह ॥ ३८ ॥ त्वं केवलज्ञानविशुद्धनेत्रः सर्वार्थवित्सर्वगणोपपन्नः । मर्वेन्द्रवन्धः प्रविधूतपाप्मा आचक्ष्व जीवादिपदार्थभेदान् ।। ३९ ।।
ऋषिराज वरदत्तकेवलीके चरणों में साष्टाङ्ग प्रणाम करते हुए महाराज धर्मसेन जगमगाते हुए मुकुट, घुटनोंतक लटकते लम्बे मणि मुक्ताओंके हार तथा भुजाओंमें नोचे ऊपर सरकते हुए विचित्र रत्नोंसे निर्मित अंगदकी कान्तिके कारण वैसे शोभित हो रहे थे जैसा कि उदयाचलपर उदित होता सूर्य लगता है ।। ३५ ॥
राजाने अपने नाम, गोत्र और व्रतादिका निवेदन करके अनेक मन्त्रों तथा विविध स्तोत्रों द्वारा केवली महाराजकी विनती की थी तथा 'संघका ज्ञान, चरित तथा नियम निरन्तर राय बढ़ रहे हैं ?' कहकर समस्त ऋषियोंकी कुशल क्षेम पूछी थो॥ ३६ ॥
इसके उपरान्त मन, वचन और कायसे शुद्ध राजाने संघके शेष समस्त चरित्र चक्रवर्ती ऋषियोंको क्रमशः भक्ति भावसहित बन्दना करके लौटकर अत्यन्त विनयके साथ श्रीकेवली महाराजके चरणोंमें शान्ति और प्रसन्नता पूर्वक बैठ गये थे तथा निम्न प्रकारसे तत्त्वार्थकी जिज्ञासा की थी ।। ३७ ।।
गुरुस्तुति तथा धर्म प्रश्न हे मोहजेता ऋषिवर ? अहिंसा महाव्रतका साँग पालन करके आपने संसारके प्रागिमात्रको अभयदान दिया है, अतीन्द्रिय बल और ज्ञानके स्वामी होनेके कारण आप ही संसारकी शरण है और आपके आश्रयसे ही तो उसका उद्धार हो सकता है । पूर्ण ज्ञानके भण्डार होनेके कारण आप ही सत्य और हितकारी उपदेश दे सकते हैं अतएव महाराज ! मुझे धर्मरूपो । अमृतका पान कराइये ।। ३८॥ हे महाराज ! देश, काल, पर्याय आदि बन्धनहीन परमपवित्र केवलज्ञान ही आपकी आँखें हैं। आप समस्त द्रव्य
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