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________________ वराङ्ग चरितम् मत्तद्विपस्यायतपीनबाहः स्कन्धाधिरूढः ससितातपत्रः । अष्टाधसच्चामरवीज्यमानो वजन बभौ शक्र इव द्वितीयः ॥३१॥ यथैव पूर्व भरतेश्वरस्तु हिरण्यनाभाय नमस्क्रियायै । वजन बभासे वरदत्तपावं श्रीधर्मसेनो वसुधाधिपश्च ॥ ३२ ॥ अदूरतः साधुगणान्विलोक्य मत्तद्विपेन्द्रादवतीर्य सद्यः । अपोहा बालव्यजनातपत्रं मुदाश्रितो वन्दितुमायतश्रीः ॥ ३३ ॥ ज्योतिर्गणैरिन्दुरिवाचलेन्दु' प्रदक्षिणीकृत्य वसुंधरेन्द्रः। सपुत्रदारः सहमित्रबन्धुननाम पादावृषिसत्तमस्य ॥ ३४ ॥ तृतीयः सर्गः मामाच विशालबाहु महाराज धर्मसेन स्वयं भी मदोन्मत हाथीके ऊपर विराजमान थ । उनके ऊपर चन्द्रिकाके समान धवल छाता लगा था और (आठके आधे अर्थात्) चार बढ़िया चमर उनके ऊपर दुर रहे थे। इस ठाटके साथ मुनिवन्दनाको निकले महाराज दूसरे इन्द्रके समान मालूम देते थे ।। ३१ ॥ श्रीवरदत्तकेवलीकी चरण चर्चा के लिए उक्त रूपसे जाते हुए महाराजाधिराज धर्मसेनको देखकर आपाततः उस यात्राका स्मरण हो आता था जो प्रथम चक्रवर्ती भरतने इस युगमें सर्व प्रथम धर्मके उपदेशक भगवान हिरण्यगर्भ [जिनके गर्भ में आते ही सोनेकी वृष्टि ( पूर्ण सुकाल ) होने लगा थी] पुरुदेवके समवशरणकी बन्दनाके लिए को थी ॥ ३२ ॥ गुरु विनय विपुल वैभवके स्वामी महाराज धर्मसेन जब चलकर मुनिसंघके निकट पहुंचे तो विशाल शिलापर विराजमान तपोधनोंको वहींसे देखकर तुरन्त ही अपने मदोन्मत्त हाथोपरसे नीचे उतर आये ओर आनन्द विभोर हो गये थे तथा छत्र, चमर आदि सब ही राजचिह्नोंको वहीं छोड़कर पैदल हो मुनिबन्दनाको गये थे ॥ ३३ ॥ मुनिवन्दना जिस प्रकार ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक ज्योतिषी देवोंके साथ चन्द्रमा पर्वतोंके राजा सुमेरुकी परिक्रमा करता है उसी प्रकार पृथ्वीके इन्द्र महाराज धर्मसेनने अपनी पत्नियों, पुत्रों, पुत्र-बधुओं, मित्रों और कुटुम्बियोंके साथ मुनियोंके भी मुकुटमणि महर्षि वरदत्तकेवलीकी प्रदक्षिणा करके चरणों में धोक दी थी।। ३४ ।। १. [ अचलेन्द्र ] । EIRMIRE Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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