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________________ अन्ये पुनः प्राक्तनुकर्मबन्धाः संसारनिःसारविकारदोषान् । अवेत्य निर्वेदपरायणास्ते दीक्षाभिलाषाः प्रययुगैहेभ्यः ॥ २७ ॥ मदप्रभिन्नार्द्रकटद्विपानामन्तनिनादै' रथनेमिघोषैः। तरङ्गमानामपि हेषितैश्च पदातिवन्दप्रतिबद्धवाक्यैः ॥ २८॥ नानाविधैस्तैः पटहेर्ब हद्धिः शङ्कस्वनैर्बन्दिमुख प्रलापैः। प्रावटपयोदध्वनिमादधाना नरेन्द्रसेना विबभौ प्रयान्ती ॥ २९ ॥ आरुह्य रत्नोज्ज्वलमौलयस्ते हस्त्यश्वयानानि पृथग्विधानि । वरा वराङ्गप्रमुखाः कुमारा वसुधरेशस्य ययुः पुरस्तात् ॥ ३० ॥ तृतीयः सर्गः AAPERRIEREITHER अनेक ऐसे भव्यजीव थे जिनका पुरातन कर्मबन्ध शुभाचरण द्वारा यों ही काफी कम हो गया था, वे संसार और शरीरकी निस्सारता, विकारों और दोषोंको भलीभाँति जानते थे फलतः उनका मन वैराग्यसे ओत-प्रोत हो रहा था इसीलिए वे मुनिदीक्षा ग्रहण करनेका पक्का निश्चय करके ही घरसे निकले थे ।। २७ ॥ यात्रावर्णन मदजलके सतत प्रवाहसे गीले गण्डस्थल युक्त मस्त हाथियोंकी बीच, बीच में होनेवाली चिंघाड़े, जोरसे दौड़े जानेवाले रथोंकी धुराकी चेंचाहट, चपल घोड़ोंकी अत्यधिक हिनहिनाहट, आपसमें गपशप करनेमें लीन पैदल सैनिकोंके शोरगुल, जोरजोरसे पीटे गये अनेक तरहके पटह आदि बाजों ।। २८ ॥ __ जोरसे फूके गये शंखोंकी ध्वनि, तथा आगे आगे चलकर महाराजका विरुद उच्चारन करनेमें मस्त भाटोंके शोर आदिकी ध्वनियोंके मिल जानेसे वर्षाकालीन मेधोंके समान दारुण गर्जना करती हुई चली जानेवाली राजाकी सेनाकी शोभा अद्भुत ही थी ।। २९ ।। यात्री राजवंश महामूल्यवान विविध प्रकारके रत्नोंसे जड़े हुए जगमगाते हुए उत्तम मुकुट आदि पहिनकर अलग अलग हाथी, घोड़ा। आदि सवारियोंपर आसीन हुए युवराज वरांग आदि सब ही श्रेष्ठ राजकुमार महाराजको सबारीके आगे-आगे मुनिसंघकी बन्दनाको चले जा रहे थे । ३० ।। [४८] १.क मन्त्रनिनादैः, [ मन्द्र निनादः] । Thi Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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