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________________ बराङ्ग चरितम् एकत्रिंशः संसारनिस्सारमपारतीरं त्रिलोकसंस्थानमनादिकालम् । द्रव्याणि च द्रव्यगुणस्वभावान्स चिन्तयामास यतियथार्थम् ॥ १०॥ एकस्तु मे शाश्वतिकः स आत्मा सदष्टिसज्ज्ञानगुणैरुपेतः। शेषाश्च मे बाह्यतमाश्च भावाः संयोगसल्लक्षणलक्षितास्ते ।। १०१॥ संयोगतो दोषमवाप जीवः परस्परं नैकविधानबन्धि । तस्माद्विसंयोगमतो दुरन्तमाजीवितान्तादहमुत्सृजामि ॥ १०२॥ सर्वेषु भूतेषु मनः समं मे वैरं न मे केनचिदस्ति किंचित् । आशां पुन: क्लेशसहस्रमलां हित्वा समाधि लघु संप्रपद्ये ॥ १०३ ॥ सर्गः यह संसार सब दृष्टियोंसे निस्सार है, अपने आप इसका कभी अन्त नहीं होता है, तीनों लोकोंका निर्माण भी कैसा अद्भुत है, काल भी कैसा विचित्र है, न उसका आदि है और न अन्त है, छहों द्रव्यों के स्वरूप क्या है, उनके गुण और पर्याय कैसी हैं, इन सब तत्त्वोंको अपने एकाग्र ध्यानमें उन्होंने वैसे ही सोचा था जैसे कि वे वास्तवमें हैं ।। १०० ।। मेरा यह आत्मा इन सबसे भिन्न हैं वह अनादि तथा अनन्त है। उसका स्वभाव ही सम्यक-दर्शन, सम्यक-ज्ञान मय है। ज्ञान और दर्शनके अतिरिक्त जितने भी शुभ तथा अशुभ भाव तथा पदार्थ हैं वे इससे सर्वथा पृथक हैं। उनका और आत्मा का वही सम्बन्ध है जो काया तथा कपड़ों आदिका है, इसके अतिरिक्त चैतन्य आत्मा और बाह्य जगतमें कोई सदृशता अथवा सम्बन्ध नहीं है । १०१ ॥ बाह्य पदार्थोंके संयोगमें फंस कर हो यह आत्मा सब दोषोंका आश्रय बन जाता है, क्योंकि संयोगको कुमासे जोव तथा जड़ एकामेक हो जाते हैं। अतएव इन दोनोंके इस भीषण तथा परिणाममें वातक संयोगको मैं जोवनके अन्तके साथ-साथ ही छोड़ता हूँ॥ १०२॥ बंध वैचिच्य __ संसारके समस्त प्राणियों पर मेरा मन एकसा है, किसीके साथ मेरी कोई भी शत्रुता नहीं है । आशा इस जगतमें एक दो नहीं हजारों तथा अनन्त क्लेशोंका एक मात्र अक्षय मूल है मैं उसे भी छोड़ कर वेगके साथ समाधिस्थ होता हूँ॥ १०३ ।। १. [ निस्सारसंसारमपार° ] । २. म शाश्वतकः । [६५१] Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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