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________________ वराङ्ग चरितम् Se इत्येवमर्थान्बहुशो विचिन्त्य विधूय संकल्पमनल्पबुद्धिः । तपःकृशीभूतशरीरबन्धो महामुनिर्मासमथाध्युवास ॥ १०४ ॥ कृत्वा कषायोपशमं क्षणेन ध्यानं तथाद्यं समवाप्य शुक्लम् । यथोपशान्तिप्रभवं महात्मा स्थानं समं प्राप वियोगकाले ।। १०५ ॥ त्रिगुप्तिगुप्तेन दृढव्रतेन द्वारं नयानं [" ] हितं' यथावत् । स्थितानि कर्माणि कृशीकृतानि तपःप्रभावान्मुनिसत्तमेन ॥ १०६ ॥ स्थित्वापि सद्धधानपथेर निरोधात्कृत्वा च चारित्रविधि यथावत् । कर्मावशेष प्रतिबद्ध हेतोः स निर्वृति नापदतो महात्मा ॥ १०७ ॥ इस पद्धतिका अनुसरण करके राजर्षिने लोक तत्वोंका अनेक बार अनेक दृष्टियोसे ध्यान किया था। वे महामतिमान् थे अतएव संकल्प-विकल्पों को समाप्त करनेमें उन्हें समय न लगा था । निरन्तर चलते हुए तपस्या के अनुष्ठानों के भारसे उनका शरीर सर्वथा कृश हो गया था ।। १०४ ।। निदान त्याग इस प्रकार वे महामुनि एक मास पर्यन्त साधना-रत ही रहे थे। इसके उपरान्त एक क्षण भरमें ही राजकि कषाएँ (लोभ) विनष्ट हो गयीं थीं तथा वे शुक्ल-ध्यानकी प्रथम कोटि पृथक्त्व-विर्तक अवस्थामें आसीन हो गये थे । इसी क्रम विकास करते हुए वे प्राण वियोग के समय परम शान्तिसे प्राप्त होनेवाले सम स्थानपर पहुँच गये थे ।। १०५ ॥ ॥ क्षपकश्रेणी तीनों गुप्तियों रूपी कवच में सुरक्षित, ग्रहीत व्रतोंको निभाने के लिए अडिग तथा अकम्प, शास्त्रोक्त प्रक्रिया के अनुसार ही कर्मोंका आस्रव तथा निर्जरा ( क्योंकि कुछ रह ही नहीं गया था ) रूपी द्वारोंके रोधक राजर्षिने अल्पकालमें ही पहले से बँधे कर्मों को भी महान् तपके द्वारा नष्ट कर दिया था ।। १०६ ।। राज वग यद्यपि शुभ शुक्लध्यानकी प्रगति में पूर्णरूपसे प्रवेश पा चुके थे, मानसिक तथा अन्य वृत्तियों के पूर्ण निरोध को, सम्यक्चारित्रकी सर्वांग विधिको आगमके अनुकूल रूपमें पूर्ण कर चुके थे तो भी उन महर्षिको मोक्ष पदकी प्राप्ति न हुई थी। इसका कारण तो स्पष्ट ही था; उनके आत्माको शरीरमें बाँध रखनेके लिए कुछ कर्म तब भी शेष रह गये थे ।। १०७ ।। १. [ पिहितं ] । २. क निरोधो । ३. [ प्रतिबन्ध° ] | Jain Education International For Private & Personal Use Only एकत्रि: सर्गः [ ६५२ ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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