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________________ बराज एकविंशः परितम् सर्गः परीषहारीनपरिश्रमेण जित्वा पुनन्तिकषायदोषः । विमुच्य वेहं मुनिशुद्धलेण्या आराधयन्तंर भगवाजगाम ॥ १०८॥ यथैव वीरः प्रविहाय राज्यं तपश्च सत्संयममाचचार । तथैव निर्वाणफलावसाना लोकप्रतिष्ठा सुरलोकमनि ॥ १०९॥ शेषाश्च सर्वे जितरागमोहा महाधियः संयतपुङ्गवास्ते । सज्ज्ञानचारित्रतपःप्रयोगाद् विशुद्धलेश्याः सुरलोकमीयुः ॥ ११०॥ अनन्तरं केचन वैजयन्तं प्रैवेयकं ह्यारणमच्युतं च। माहेन्द्रकल्पं च ययुर्यतीशाः सुरर्षयो ज्ञानपरायणास्ते ॥ १११॥ तब अथक परिश्रमके द्वारा उन्होंने शेष परीषहों रूपो शत्रुओंको जीत लिया था तथा कषायों-रूपी समस्त दोषोंको विवेकके द्वारा धो डाला था फलतः उनको आभ्यन्तर लेश्या परम शुक्ललेश्या हो गयी थी। उस समय उनका ध्यान पंचपरमेष्ठीके स्मरण और आराधनामें लीन था इस अवस्थाको प्राप्त होते ही भगवान वरांग महामुनि अपने उत्तम औदारिक शरीरको छोड़कर पंचम गतिको प्रस्थान कर गये थे ।। १०८ ॥ अयोगावस्थाकी ओर वीरोंके मुकुटमणि सम्राट वरांगने जिस उत्साह और लगनके साथ आनर्तपुरके विशाल साम्राज्यको छोड़कर परम शुद्ध निर्ग्रन्थ दीक्षाको ग्रहण किया था और मुनि वरांग होकर शुद्ध संयम तथा तपका आचरण किया था, उसी निरपेक्ष भाव तथा शुद्ध स्वभाव प्राप्तिके साथ वे देव (ऊर्ध्व) लोकके मस्तक तुल्य तथा जीवलोककी अन्तिम सीमा भूत उस सर्वार्थसिद्धि विमानमें उत्पाद शय्यासे जाग कर विराज गये थे। जिसमें उत्पन्न होनेका तात्पर्य हो यह होता है कि अगले भवमें निर्वाण पद प्राप्त करेंगे ॥१०९॥ शरोरान्त राजर्षि वरांगके साथ जिन-जिन अन्य राजाओंने दीक्षा ग्रहण करके कठोर संयमकी आराधनामें सफलता प्राप्त करके । रागद्वेष आदि कषायोंको जीत लिया था, वे मतिमान राजर्षि भी सम्यक्ज्ञान, सम्यकुचारित्र, घोर तप आदिके सफल प्रयोगोंके फलस्वरूप परम शुद्ध लेश्याओंको प्राप्त करके आयुकर्मकी समाप्ति होते ही देवलोक चले गये थे ॥ ११ ॥ अन्य मुनि समाधिमरण ज्ञान ध्यान परायण उन राजर्षियोंमें से कितने ही मुनिवर सर्वाथसिद्धिके पहिले स्थित अपराजित विमानमें प्रकट हुए । १. [ मुनिरुच्च , सुविशुद्ध]। २. [ आराधनान्तं ] । SAIRATRINATHERLANGRAHELIRAL [६५३] Jain Education interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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