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वराङ्ग चरितम्
विक्रीतवान्यो' नयवद्विनीतः शूरः कृतास्त्रो न च मृत्युभीरुः । संग्रामकाले स जयत्यरातीनाकृष्यमाणो त्रियते न कश्चित् ॥ ३५ ॥ स्वजीवितेनात्र ममाग्रतस्तु यदि प्रयातो निरुपद्रवेण । प्रेक्षस्व पश्चात्तव मृत्युकल्पं श्रीदेवसेनाख्यमदीनसत्त्वम् ॥ ३६ ॥ अवज्ञयान्यांस्तु विवक्षते' वा यत्किचिदात्मोन्नतिगर्वदग्धः । निरस्तविज्ञानगुणावबन्धः स लाघवं सत्सु परं प्रयाति ॥ ३७ ॥ न केवलं वाक्कलहेन कार्यं निरर्थकेनैवमथावयोस्तु | व्यक्तीभवत्यद्य हि पौरुषस्य सुवर्णसारो निकषाश्मनीव ॥ ३८ ॥ प्रशस्य तावद्वणिजां प्रहारान्प्राणक्षयं कर्तुं मनोहमानान् । इति ब्रुवाणो वरवारणेन्द्र कश्चिद्भटो योद्धमुपानिनाय ॥ ३९ ॥
जो व्यक्ति वास्तवमें विक्रम दिखाता है, तो भी नीति तथा विनम्रताका गला नही घोंटता है, शस्त्र परिचालनमें कुशल होनेके साथ, साथ हृदयसे भी शूर होता है तथा मृत्युसे नहीं डरता है वही घोर युद्ध उपस्थित होनेपर शत्रुओंका पराभव करता है, कोई भी व्यक्ति घसीटे ( चाहे ) जानेपर ही नहीं मरता है ॥ ३५ ॥
यदि किसी भी प्रकारसे तुम आज मेरे सामनेसे उपद्रवमें बिना पड़े ही अपने प्राणोंको बचाकर आगे बढ़ गये तो महाशय ! तुम्हें उस महा पराक्रमीका सामना करना पड़ेगा जो कि महातेजस्वी और पुरुषार्थी है। तथा तुम्हारे लिए साक्षात् मृत्यु है, वे हैं ललितेश्वर महाराज देवसेन || ३६ ||
क्षणिक उन्नति अहंकारसे अन्धा होकर जो व्यक्ति दूसरोंकी अवज्ञा करता है तथा जो कुछ भी मनमें आता है उसे खूब विकृत करके कहता है। पदार्थों के विशेष ज्ञान तथा शिष्टता आदि गुणोंकी सम्पत्तिसे हीन वह व्यक्ति जब सज्जनोंके सामने आता है तो उसका पतन अवश्य होता है ॥ ३७ ॥
इसके सिवा केवल वाचनिक युद्धसे क्या लाभ है, वह तो सर्वथा निरर्थक है । आजके घोर संघर्ष में ही हम दोनोंका पुरुषार्थं उसी प्रकार संसारके सामने आ जायेगा। जिस प्रकार कसौटीपर कसते ही सोनेका सार ( शुद्धि ) तुरन्त व्यक्त हो
जाता है ॥ ३८ ॥
लो, सामने आओ और सार्थंपतिके पुत्र वणिकके प्रहारोंकी और प्रशंसा करो क्योंकि वे ( प्रहार ) तुम्हारे प्राणोंका
१. [ विक्रान्तवान्यो ] ।
२. क विवक्षिते ।
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अष्टावप
सर्गः
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