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वराङ्ग चरितम्
अभ्यर्णमायान्तमुपेन्द्रसेनः समीक्ष्य कोपायतता दृष्टिः । बलाहकं ताम्रगिरिप्रकाशं कश्चिद्भटस्याभिमुखं निनाय ॥ ४० ॥ मृगेन्द्रशावाविव संप्ररुष्टौ युद्धातिशौण्डाविव भर्त्सयन्तौ । परस्परं व्यद्धुमयः शरौघैः प्रारब्धवन्तौ प्रतिबद्धवैरौ ॥ ४१ ॥ बृहत्पृषत्कैस्त्वथ वत्सदन्तैः सूचीमुखैः' पूर्णतमार्धचन्द्रैः । कर्णेषु नाराचवरैश्च तीक्ष्णैरविध्यतां तौ च परस्परं हि ॥ ४२ ॥ ताभ्यां धनुर्वेदविशारदाभ्यां विमुक्तनाराचशरोरुवर्षाः । विभासमानाः खतलं वितत्य वर्षासु धारा इव संनिपेतुः ॥ ४३ ॥
नाश तो करना ही नहीं चाहते हैं।' इस प्रकारसे शिष्ट शैलीमें शत्रुको उत्तेजित करते हुये कश्चिद्भटने अपने सर्वोत्तम हाथीको टक्कर लेनेके लिए आगे बढ़ा दिया था ।। ३९ ।।
क्रोधोन्मत्त उपेन्द्र
कश्चिद्भकी सौम्य भर्त्सनाने उपेन्द्रसेनको इतना कुपित कर दिया था कि उसकी पूरी आँखें लाल हो गयी थीं। इसी अवस्थामें उसने कश्चिद्भटको अपने निकट आता देखकर ताम्बेके पर्वत के समान विशाल तथा दृढ़ अपने बलाहक नामके हाथीको उसके सामने की ओर ही बढ़ा दिया था ॥ ४० ॥
उस समय कश्चिद्भट तथा उपेन्द्रसेन यह दोनों ही सिंहके किशोरोंके समान कुपित थे, युद्धकलामें सर्वोपरि दक्ष वीरों• उपयुक्त एक दूसरेकी भर्त्सना कर रहे थे, परस्परमें एक दूसरेके प्रति उनके हृदयोंमें गाढ़ वैरभाव बँध चुका था। अतएव एक दूसरेको छेद-भेद देनेके लिए उन्होंने लोहेके तीक्ष्ण बाणोंकी बौछार प्रारम्भ कर दी थी ।। ४१ ।
युवराज- द्वन्द्व
पहिले उन्होंने बड़े-बड़े बाणोंकी वृष्टि की थी उसके उपरान्त वत्सदन्त ( दांतीयुक्त वाण ) प्रहार किये थे । कभी वे सुकी नोक के समान तीक्ष्ण मुखवाले वाणोंको फेंकते थे तो दूसरे ही क्षण अर्धचन्द्र समान मुखके वाणों द्वारा आघात करते थे । अत्यन्त तीक्ष्ण तथा उत्तम विधिसे बने वाणोंके द्वारा कानोंपर मार करते थे। इस प्रकार वे एक दूसरेको छलनीके समान छेदते 'जा रहे थे ।। ४२ ।।
वे दोनों ही युवराज धनुष विद्या के पंडित थे फलतः जब वे अपने दृढ़ धनुषोंके द्वारा वेगसे वाणवर्षा करते थे, तो वे सब
१. क शचीमुखः ।
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अष्टादशः
सर्गः
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