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सप्तदशा
यदि 'प्रयातं पुरतो न चेच्छेस्तावत्प्रतीक्षस्व मुहूर्तमात्रम् । निकृत्य तेऽङ्गानि नपात्मजाये संप्रेपयाम्यद्य हि मा त्वरिष्ठाः ॥३१॥ उपेन्द्रसेनस्य युवाधिपस्य यवत्वतेजोबलगवितस्य । गिरं निशम्यात्ममनोरुजन्तों कश्चिद्भटः प्रत्यवद्दषा तम् ॥ ३२॥ यो वा स वाहं तव कि मयात्र गजः स एवायमभीप्सितार्थः। मयाधिरूढस्तु सहैव पित्रा त्वां प्रापयत्यद्य यमातिथित्वम् ॥ ३३ ॥ गजं परेषां परराजयानी ग्रहीतुकामस्तु विनैव वैरात् ।। किमागतस्त्वं धनमानदप्तो लज्जान्वितश्चेद्वद जातिधीर ॥ ३४ ॥
सगः
क्यों उठा रहे हो। तुम्हारे ऐसे अशक्य अनुष्ठान करनेवाले अकुशल तथा निर्लज्ज व्यक्तिको मैं बिना किसी विचारणीय कारणके। नहीं मारता हूँ; जल्दीसे भागो ॥ ३० ॥
मेरे बार-बार कहने पर भी यदि तुम संघर्ष होनेके पहिले नहीं भागना चाहते हो, तो लो एक मुहुर्त भरके लिए रुक जाओ ताकि मैं वाणोंकी मारसे तुम्हारे एक-एक अंगको काटकर आज ही महाराज देवसेनको पुत्रीके पास भेजता हूँ। ठहरो, अब शीघ्रता मत करो ॥ ३१ ॥
उपेन्द्रसेन अपने यौवनके बल और तेजके अहंकारसे उन्मत्त होकर जिन अकथनीय वचनोंको कह रहा था उन्हें सुनकर महावीर कश्चिद्भटका हृदय क्षत-विक्षत हो गया था अतएव क्रोधसे तमतमा कर ही उन्होंने उस अहंकारी मथुराके युवराजको उत्तर दिया था ॥ ३२॥
कश्चिद्भटकी धीरोक्ति ____ मैं जो कुछ भी हूँ, अथवा वही हूँ जो तुम कहते हो, पर इससे तुम्हें क्या ? मैं आज इस समरस्थलीमें उसी हाथीपर आरूढ़ हूँ जो तुम्हारे उत्कट मनोरथोंका विषय है । इतना ही नहीं आज मैं ही इसपर आरूढ़ रहकर इसे तुम तथा तुम्हारे पिताके ऊपर छोड़ गा और यह तुम दोनोंको निश्चयसे यमका अतिथि बना देगा ॥ ३३ ।।
तुम अपनी जातिके ही कारण धीर वोर हो, तुम्हें अपनी प्रभुता तथा सम्पत्तिका अहंकार है तो भी पहिलेसे कोई वैर न रहते हुए भी तुम दूसरे राजाके हस्तिरत्न, राज्य तथा राजधानीको बलप्रयोग करके छीनने आये हो ? यदि इतनेपर भी लज्जा नहीं आती है, तो बको ॥ ३४ ।। १. [ प्रयातु]।
SIAचार-230मनाममा
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