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बराङ्ग चरितम्
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तपसूर
इस घटनाक्रम
जगत ने देखा था कि विशाल साम्राज्य दायित्वसे मुक्ति लेकर सम्राट वरांगने महाव्रत, साधुके गुणों ( कर्त्तव्यों ) तथा जैनी तपस्या के मार्गको अपना लिया था। यह सब देखकर ज्ञानमती तरुणी राजबधुएँ हृदयसे प्रसन्न ही हुईं थी तथा अपना कल्याण करनेके लिए उन सबने भी उम्र तपस्याका व्रत लिया था ।। ९६ ।
इति नृपतिरपास्य राज्यभारं व्रतगुणशीलतपांसि संबभार । प्रमुदितमनसश्च राजपत्न्यः परमतपांस्यभिदधिरे हिताय ॥ ९६ ॥ नृपनृपवनिताभिरुज्झितानि वरमकुटाङ्गदहारकुण्डलानि । अवनितलमुपागतानि रेजुः कुरुषु यथा तरुजानि भूषणानि ॥ ९७ ॥ नवशरदि भृशं सुपूर्णचन्द्रो व्यपगतमेघमलीमसाइच तारा । ग्रहणमिह 'तामलेवछर्धाः प्रतिविरराज मही विभूषणैस्तैः ॥ ९८ ॥ यतिपतिमभिवन्द्य सादरास्ते तदनु मुनीन्नवसंयतांश्च भक्त्या । नरवरवनिता विमुच्य साध्वीशमुपययुः स्वपुराणि भूमिपालाः ९९ ।
इति धर्म कथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थ संदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते वराङ्गदीक्षाधिकारो नामैकोनत्रिशतितमः सर्गः ।
सुकुमारी कन्तु विरक्त राजतरुणियों के द्वारा शरीर से उतारकर भूमि पर फेंक दिये गये उत्तम मुकुट, श्रेष्ठतम अंगद, महार्घ्यंहार, अद्भुत कुण्डल आदि भूषणोंसे पटी हुई भूमिको देखकर ( उत्तर तथा देव ) कुरु भोगभूमिकी याद आ जाती जहाँ पर कल्पवृक्षोंसे गिरे भूषन वसन भूमिपर पड़े रहते हैं ॥ ९७ ॥
हुई भूमिकी शोभा निर्मल शरद ऋतु में पूर्णिमाके चन्द्रमाकी शीतल ध्वल कान्तिका अपहरण करती थी । अथवा उसे देखते ही उस आकाशकी, उस श्रीका स्मरण हो आता था जो कि मेघ उड़ जानेपर समस्त ताराओंके निर्मल प्रकाश होती है । अथवा समस्त ग्रहों, नक्षत्रों तथा अन्य ज्योतिषी देवोंके विमानोंसे भासिंत आकाशकी जो अनुपम शोभा हो सकती है ॥ ९८ ॥
इस विधि से दीक्षा समारोह समाप्त हो जाने पर साथ आये हुए राजाओं तथा नागरिकोंने अपनी पत्नियों के साथ यतिपति वरदत्त मुनिकी बन्दना की थी। इसके उपरान्त सब मुनियों, नूतन दीक्षित साधुओं, संयमियों, त्यागी पुरुषों तथा स्त्रियोंकी यथायोग्य विनंती करके अपने-अपने नगरको लौट गये थे । ९९ ॥
१. [ ताम्रलेप ।
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चारों वर्ग समन्वित सरल शब्द - अर्थ - रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथा में वरांगदीक्षाधिकार नाम एकोनत्रिशतितम सर्ग समाप्त ।
२. [ त्रिशत्तमः ] |
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एकोन
त्रिंशः
सर्गः
[ ६०६ ]
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