________________
बराङ्गा
त्रिंशः
चरितम्
सर्गः
EPARATHASRestreamPURPrepresHPRAHAMANIP
केचिद्बभवद्विमहातपस्का उप्रैश्च दीप्तश्च महातपोभिः । घोरैस्तथा घोरपराक्रमाश्च तपोऽधिकध्यानपराः कृतार्थाः ॥ ७२ ॥ विशिष्टनानद्धि गणोपपन्ना महर्षयः क्षान्तिदयासमेताः।
निदर्शनं तध्द्यभवत्परेषां धर्माथिनां भव्यजनोत्तमानाम् ॥ ७३ ॥ इत्येवं श्रुतविभवा महर्षयस्ते सच्छोलवतगुणभावनाभिरिक्ताः'। त्यक्ताशाः स्थितमतयः प्रशान्तदोषा स्तीर्थानि प्रवरधियो बभूवाम् ॥ ७४ ॥ संक्षेपात्पृथुयशसां तपांसि तेषां प्रोक्तानि प्रथितमहागुणोदयानाम्। भूयोऽपि क्षितिपतियोषितां तपांसि राजर्षेरमितगुणस्य चाभिधास्ये ॥७५ । इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वराङ्गचरिताश्रिते महर्षीणां तपोविधानवर्णनो नाम त्रिंशतितमः सर्गः।
वर्द्धमान तप अत्यन्त उग्र तथा कराल तपस्याको निर्दोष रूपसे करके कितने ही साधु तपस्याके अन्तको पा गये थे और वास्तवमें महातपस्वी हो गये थे। उनकी साधना घोर तथा कर्मशत्रुओंसे लड़नेका उत्साह तो बड़ा ही भीषण था। प्रत्येक दिन उससे पहिले दिनकी अपेक्षा वे अधिक ध्यान और तप करते थे। इसीलिए वे अपने कार्यमें कृतकृत्य हो सके थे । वे अद्भुत ऋद्धियों तथा उत्तम गुणोंके अक्षय भंडार थे ।। ७२ ॥
शान्ति तथा दया उन सब ही महषियोंका स्वभाव हो गयी थी। जो कि निकट भव्य थे तथा धर्म कमानेके लिए आतुर थे उन सबके लिए वरांग आदि सब हो मुनियोंकी साधना तथा शीघ्र प्राप्त सिद्धि साक्षात् निदर्शन हो गयी थी। द्वादशांग शास्त्रका ज्ञान ही इन सब सकल साधकोंकी संपत्ति थी ।। ७३ ।।।
वे सत्य शील, महाव्रत, साधपरमेष्ठीके गुण, अनित्य आदि भावनाओंकी सिद्धिमें ही दिन रात लीन रहते थे। उन्होंने लौकिक तथा पारलौकिक सब ही आशाओंको समाप्त कर दिया था। उनकी मति अपने आदर्शपर स्थिर थी, क्षुधा, तृषा आदि दोष शान्त हो गये थे तथा उनके ज्ञानका तो कहना ही क्या था ।। ७४ ।।
ऐसे परम तपस्वी वे सब मनिलोग पथ्वीपर विहार करते थे। इस सतत उग्र तपस्याके उपरान्त उनके आत्मामें अनेक महागणोंका उदय हुआ था। इनके कारण वरींग आदि ऋषियोंके तपकी कीर्ति सारे संसारमें फैल गयी थी। इसीलिए अत्यन्त। संक्षेपसे उसका यहाँ वर्णन किया है। इसके आगे भी पूर्व वरांगराजकी दीक्षित पत्नियोंकी तपसिद्धि तथा यथावसर अमित गुण राजर्षिके विषयमें भी कुछ कहेंगे ।। ७५ ॥
चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द अर्थ रचनामय वरांगचरित नामक
धर्मकथामें तपोविधानवर्णननाम त्रिंशतितम सर्ग समाप्त ।
[२५]
ASHAMATA
१. [ °भिरक्ताः
।
२. [त्रिंशत्तमः ।
७९
Jain Education interational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org